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आराधनासमुच्चयम् - ५७
करनी चाहिए। अत: देवता आदि आठ को मन, वचन, काय और कालदेश इन चार से गुणा करने पर वैनयिक मिथ्यात्व के बत्तीस भेद सिद्ध होते हैं।
इस प्रकार क्रियावादी आदि के भेद से मिथ्यादर्शन के तीन सौ त्रेसठ भेद होते हैं।
“वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उसके किसी भी एक धर्म का अन्य धर्मों की अपेक्षा न करके 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार एकान्त रूप से अवधारण करने वाले जितने भी नय हैं, वे सब अपरिशुद्ध नय हैं, अर्थात् दुर्नय हैं। इन्हीं अपरिशुद्ध नयों को ही वचनमार्ग कहते हैं । वस्तु में जितने वचन मार्ग हैं अर्थात् एकएक धर्म के निरपेक्ष भाव से अवधारण करने के प्रकार सम्भव हैं, उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद हैं अर्थात् एक-एक धर्म को अवधारण करने वाले वचनों के प्रकार हैं उतने ही परसमय हैं - परदर्शन हैं।" क्योंकि स्वेच्छा से कल्पित शाब्दिक विकल्पों से ही परसमयों की सृष्टि होती है। इस जगत् में एकएक धर्म के अवधारण करने वाले शब्दप्रयोग हो सकते हैं, उतने ही परदर्शन होते हैं। (ध. १/१, १, ९/ गाथा १०५ व टीका/१६२) क्योंकि काल्पनिक विकल्प अपरिमित हैं अत: उनसे उत्पन्न होने वाले प्रवाद भी उतने ही होते हैं। अतः मिथ्यादर्शन अनगिनत हैं।
“इस प्रकार परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन के अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं तथा परिणामों की दृष्टि से असंख्यात और अनुभाग की दृष्टि से अनन्त भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च, म्लेच्छ, पुलिन्दादि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है।" (राजवा. ८/१) ।
अतः इस आराधनासमुच्चय ग्रन्थ में आचार्य ने संक्षेप से मिथ्यादर्शन के भेदों का कथन किया है।
यह मिथ्यादर्शन ही जीवों के कुगति (नरक, तिर्यश्च गति) में गमन करने का एक (अद्वितीय) मूल कारण है। अर्थात् नरक गति में और तिर्यश्च गति में मिथ्यादृष्टि ही जाता है। तिर्यस्यायु और नरक आयु का बंध मिथ्यादृष्टि ही करता है।
स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि - सम्यग्दर्शन के समान प्राणियों का कोई कल्याणकर्ता नहीं है और मिथ्यादर्शन के समान कोई दूसरा अकल्याणकारी नहीं है।
सम्यमिथ्यात्व और उसका काल अथ सम्यङ् मिथ्यात्वं गतवांस्तस्योदयोत्थितैर्भावः। मिश्रश्रद्धानकरैः क्षायोपशमाह्वयैरास्ते ।।२२।। अन्तर्मुहूर्तकालं तद्भवमरणादि-वर्जितस्तस्मात् । च्युतवान् दर्शनमोहद्वितीयान्यतरोदयमुपैति ॥२३॥ युग्मं ॥