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आराधनासमुच्चयम् ६२
इसका दूसरा नाम वेदक भी है क्योंकि इस सम्यग्दर्शन में दर्शन मोहनीय की भेदरूप सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन होता है अर्थात इस सम्यग्दर्शन में एकदेश रूप वेदन कराने वाली सम्यक्त्व प्रकृति का उदय रहता है। इसलिए इस श्लोक में सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से होने वाले क्षायोपशमिक परिणामों से उत्पन्न होने वाला यह शब्द दिया है।
___"वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिल श्रद्धानी होता है, इसलिए वृद्ध पुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ी शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसी प्रकार वह भी तत्त्वार्थ के श्रद्धान में शिथिलग्राही होता है। अत: कुहेतु और कुदृष्टान्त से उसे सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती है।" (ध, १/१.१.१२)
आप्त, आगम और नव पदार्थों के श्रद्धान में शिथिलता और श्रद्धान की हीनता होना सम्यक्त्व प्रकृति का चिह्न है। (ध. ६।१.९.१.२१)
इस सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से ही सम्यग्दर्शन में शंका-कांक्षा आदि अतिचार लगते हैं। यह सम्यक्त्व प्रकृति ही सम्यक्त्व की स्थिरता और निष्कांक्षता गुणों का घात करती है तथा इसी के कारण यह सम्यग्दर्शन चल, मलिन एवं अगाढ़ दोषों से युक्त हो जाता है। इसलिए 'शिथिल श्रद्धानज' ऐसा कहा गया
इस सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल छासठ सागर है और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के बाद जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल में छूट जाता है, उत्कृष्ट छासठ सागर तक रह सकता है। मध्यम के अनेक भेद हैं। उसके बाद या तो क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है या मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है अथवा तीसरे गुणस्थान में जाकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होकर छासठ सागर तक रह सकता है। कहा भी है
लांतवकप्पे तेरस अच्चुदकप्पे य होति बावीसा ।
उपरिम एक्कत्तीसं एवं सव्वाणि छावट्ठी ।।इति ॥ २५/१॥ लांतव कल्प में तेरह सागर, अच्युतकल्प में बावीस सागर और उपरिम ग्रैवेयक में इकत्तीस सागर इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का छासठ सागर प्रमाण काल पूरा करता है। इसमें बीच में तीन भव मनुष्य के हैं, परन्तु उनकी आयु विशेष न होने से छासठ सागर में गर्भित हो जाती है, इसलिए इनका कथन पृथक् नहीं किया है।
श्लोक में कथित विधिना शब्द से यह सूचित किया गया है कि कहाँ-कहाँ उत्पन्न होकर छासठ सागर पूर्ण करता है।
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन किस गुणस्थान में रहता है इसको बताने के लिए तत्प्रयोगगुणयुक्तः' कहा गया है अर्थात् इस सम्यग्दर्शन वाला चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम इन चार गुणस्थानों में ही रहता है, अन्य गुणस्थानों में इसका अस्तित्व नहीं है।