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आराधनासमुच्चयम् ८५
समन्वोपरि षश्वृद्धिष्टु पदमपालनामा हानि। ज्ञानानि संभवन्ति हि संख्यातीतानि तेष्वन्त्यात् ॥६२॥ ज्ञानादनन्तगुणविज्ञानं कैवल्यबोधसंख्येय-।
भागप्रमाणमक्षरविज्ञानं कथ्यतेऽर्हद्भिः ।।६३॥ अन्वयार्थ - बलमतिविभवप्रभाषितात् - बलवान मतिज्ञान रूपी विभव से प्रतिभासित । अर्थात् - पदार्थों से। निष्पतत् - निष्पन्न। अर्थान्तरविज्ञानं - अर्थान्तर ज्ञान को। अन्तज्योतिः - अन्तज्योति रूप। श्रुतविज्ञानं - श्रुतज्ञान। विजानीयात् - समझो।
तत् - वह श्रुतज्ञान । पर्यायाक्षरपदसंघातादिविकल्पभिद्यमानं - पर्याय, अक्षर, पद, संघात आदि विकल्पों से भिद्यमान। विंशतिभेदं - बीस भेद वाला| भवति - होता है। इति - इस प्रकार । विश्वार्थतत्त्वज्ञाः - विश्व के पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले सर्वज्ञ भगवान ने। प्राहुः - कहा है।
यत् सूक्ष्मैकेन्द्रियजलब्ध्यपर्याप्त: - सूक्ष्म एकेन्द्रियज लब्ध्यपर्याप्त के । जघन्यं - जघन्य । ज्ञानं - ज्ञान | तत् - वह । निरावरणं - निरावरण । पर्यायाख्यं - पर्याय नामक ज्ञान है।
तस्य - उसके। उपरि - ऊपर। षड्वृद्धिषु - छह वृद्धियों में। पर्याय समास नामयुक्तानि - पर्यायसमासयुक्त । ज्ञानानि - ज्ञान । संभवन्ति - होते हैं। हि - क्योंकि। तेषु - उनमें । अन्त्यात् - अन्त होने से। संख्यातीतानि - संख्यातीत हैं (असंख्यात हैं)।
ज्ञानात् - इस ज्ञान से। अनन्तगुणविज्ञानं - अनन्त गुण विज्ञान । कैवल्यबोधसंख्येयभागप्रमाणं - कैवल्य बोध (ज्ञान) के संख्येय भाग प्रमाण | अक्षरविज्ञानं - अक्षरविज्ञान। अर्हद्भिः - अर्हन्त भगवान द्वारा । कथ्यते - कहा जाता है।
भावार्थ - मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ के अवलम्बन से निष्पन्न तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थों का जो उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। शब्द सुनने के बाद जो मन की ही प्रधानता से अर्थज्ञान होता है, वह श्रुत है। एक घड़े को इन्द्रिय और मन से जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के सम्बन्ध, जाति आदि का जो विचार होता है, वह श्रुत है। अथवा इन्द्रिय और मन के द्वारा एक जीव को जानकर उसके सम्बन्ध के सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव आदि अनुयोगों के द्वारा नाना प्रकार से प्ररूपण करने में जो समर्थ होता है, वह श्रुतज्ञान है।
अथवा, जिस ज्ञान में भतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञान से ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्संबंधित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है और श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।
श्रुतज्ञान का विषयभूत अर्थ श्रुत है। विशेष रूप से तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितर्क श्रुतज्ञान कहलाता है।