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आराधनासमुच्चयम् * ९४
जिसमें कथन किया गया है वह कर्मवाद है। इसके बोस वस्तुगत चार सी प्राभृत हैं और एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं।
प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय लेकर पुरुष के संहनन, बल आदि के अनुसार परिमित काल एवं अपरिमित काल के लिए सावध वस्तुओं का त्याग, उपवास की विधि, उपवास की भावना के भेद, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि का वर्णन जिसमें किया गया है, वह प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व है। अथवा, प्रत्याख्याय, प्रत्याख्यायक, प्रत्याख्यातव्य का जो कथन करता है, वह प्रत्याख्यान प्रवाद है। इसके तीस वस्तुगत छह सौ प्राभृत और चौरासी लाख पद हैं।
विद्यानुवाद पूर्व - जिस पूर्व में अंगुष्ठसेनादि सात सौ लघु विद्याएँ, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ तथा इन विद्याओं का स्वरूप, इनकी शक्ति, इन विद्याओं को सिद्ध करने की पूजा, मंत्र आदि का प्रकाशन, सिद्ध हुई विद्याओं का फल, लाभ आदि का वर्णन और भौम, अंतरिक्ष, अंग, शब्द, छिन्न, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन इन अष्टांग निमित्त का कथन है, वह विद्यानुवाद है। इसमें १५ वस्तुगत तीन सौ प्राभृत और एक करोड़ दस लाख पद हैं।
कल्याणवाद पूर्व - जिस पूर्व में तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष रूप पाँच कल्याणकों का; कल्याणकों की कारणभूत षोड़शकारण भावना, तप, अनुष्ठान आदि का; तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण आदि के पुण्य विशेष का तथा सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारागणों के चारक्षेत्र, उत्पाद स्थान, गति, वक्रगति, उनके शुभाशुभ फलों का कथन है, वह कल्याणवादपूर्व है। इसमें दस वस्तु, दो सौ प्राभृत और छब्बीस करोड़ पद हैं।
प्राणावाय पूर्व - जिस ग्रन्थ में जिनेन्द्र भगवान ने सर्व भाषाओं के द्वारा चिकित्साप्रमुख भूतिकर्म, जांगुलिप्रक्रम के साधक अनेक भेद युत अष्टांग आयुर्वेद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु रूप तत्त्वों के अनेक भेद, इंगला, पिंगला आदि प्राण, दस प्राणों के स्वरूप का प्ररूपण, प्राणों के उपकारक एवं अपकारक द्रव्य की गति आदि के अनुसार तेरह करोड़ पदों के द्वारा वर्णन किया गया है, वह प्राणावाय नामक पूर्व है। इस पूर्व में दस वस्तु सम्बन्धी दो सौ प्राभृत हैं। जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निर्गत प्राणों का रक्षक प्राणावाय पूर्व है।
क्रियाविशाल पूर्व - इसमें जिनेन्द्र भगवान कथित संगीतशास्त्र, छन्द, अलंकार आदि पुरुषों की बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौसठ गुणों का, चौरासी शिल्प आदि गुणों का, एक सौ आठ सुगर्भाधानादि क्रियाओं का और सम्यक्त्ववर्द्धिनी आदि पच्चीस क्रियाओं का कथन किया गया है तथा श्रावक और मुनियों के द्वारा प्रतिदिन करने योग्य निमित्त एवं नैमित्तिक क्रियाओं का भी वर्णन किया गया है। इसमें दस वस्तु तथा दो सौ प्राभृत हैं तथा नौ करोड़ पद हैं। जितनी भी करने योग्य वा नहीं करने योग्य क्रियाएँ हैं उन सबका कथन इसमें है।
लोकबिन्दुसार - जिसमें तीन लोक, छत्तीस गुणित परिक्रम, आठ प्रकार का व्यवहार,