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आगधगसमुच्चयम-८४
यह मतिज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है। वास्तव में मतिज्ञान परोक्ष है, परन्तु इन्द्रियों और मन के द्वारा लौकिक कार्यों में जो प्रत्यक्ष वस्तु का ज्ञान होता है, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
उपलब्धि, भावना और उपयोग के भेद से मतिज्ञान तीन प्रकार का है।
मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न (पदार्थों) को जानने की शक्ति है, वह उपलब्धिमतिज्ञान है। यह नीला है, यह पीला है इत्यादि रूप से जो पदार्थ जानने का व्यापार है, उसको • उपयोग मतिज्ञान कहते हैं। जाने हुए पदार्थों का बार-बार चिंतन करना भावना मतिज्ञान है।
यही मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के भेद से चार प्रकार का है अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी बुद्धि और संभिन्नश्रोतृताबुद्धि के भेद से चार प्रकार का है।
मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध के भेद से मतिज्ञान पाँच प्रकार का है।
इन्द्रियों और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, मनन करता है या मनन मात्र मति कहलाती है।
भूतकाल के कार्यों का स्मरण स्मृति है अर्थात् मति वर्तमान को जानती है और स्मृति भूतकाल की बात जानती है। अनुभव और स्मरण पूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। मति, स्मृति
और प्रत्यभिज्ञान तीनों ज्ञान मिलकर एक ऐसा ज्ञान उत्पन्न करते हैं जो व्याप्ति को ग्रहण करने में समर्थ होता है। यद्यपि ये चारों अभिनिबोध (मति) ज्ञान ही हैं तथापि इनमें भेद है, क्योंकि मति वर्तमानकालीन पर्याय
को ही विषय करता है। स्मरण भूतकालीन पर्याय का द्योतन करता है और प्रत्यभिज्ञान अतीत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता और सदृशता को विषय करता है। इस प्रकार मतिज्ञान के अनेक भेद हैं।
निश्चय नय से, निर्विकार शुद्धात्मानुभव के सम्मुख जो मतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनन्तसुख का साधक होने से ग्रहण योग्य है, उसी का साधक जो बाहरी मतिज्ञान है, वह व्यवहार नय से उपादेय
श्रुतज्ञान और उसके भेद निष्पतदन्तर्कोतिर्बलमतिविभवप्रभाषितादर्थात् । अर्थान्तरविज्ञानं श्रुतविज्ञानं विजानीयात् ॥५९॥ पर्यायाक्षरपदसंघातादिविकल्पभिद्यमानं तत् । विंशतिभेदं भवतीत्याहुर्विश्वार्थतत्त्वज्ञाः ।।६०॥ यत्तु जघन्यं ज्ञानं सूक्ष्मैकेन्द्रियजलब्ध्यपर्याः। तल्लब्ध्यक्षरसंज्ञं पर्यायाख्यं निरावरणम्॥६१ ॥