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आराधनासमुच्चयम् ९१
भेद हैं, चार गति की अपेक्षा चार भेद हैं। इसी प्रकार पुद्गलादि के भेद जानने चाहिए। इनका कथन करने वाला स्थानांग है।
सम्पूर्ण द्रव्यों में किसी धर्म की अपेक्षा सादृश्य है, उसका कथन करने वाला समवायांग है। जैसे प्रदेशों की अपेक्षा धर्म, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्य समान हैं।
जिस अंग में जीव अस्ति है ? नास्ति है ? अवक्तव्य है ? वक्तव्य है ? नित्य है या अनित्य है, एक है या अनेक है, इत्यादि गणधरदेव कृत साठ हजार प्रश्नों का कथन (व्याख्यान) है। वह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है।
__जिस अंग में जीवादि वस्तुओं का स्वभाव, तीर्थंकरों का माहात्म्य, उनकी दिव्यध्वनि का समय, उसका माहात्म्य, उत्तम क्षमादि दशधर्म, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय धर्म तथा गणधर, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि की कथा एवं उपकथाओं का कथन है - वह ज्ञातुकथा वा नाथ धर्म कथांग है।
___जिसमें उपासकों (श्रावकों) की सम्यग्दर्शन, अष्ट मूलगुण, ग्यारह प्रतिमा सम्बन्धी, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, उनके अतिचार तथा गर्भाधानादि १०८ क्रिया और उनके मंत्रादि का विस्तारपूर्वक कथन किया गया है, वह उपासकाध्ययनांग है।
जिसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थं में जो दस-दस मुनि चार प्रकार का उपसर्ग सहन करके संसार के अन्त को प्राप्त होते हैं, उनका वर्णन किया जाता है, उसको अन्तकृदशांग कहते हैं।
जिसमें प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होने वाले उन दस-दस दक्ष मुनिराजों का कथन है जो घोर उपसर्ग सहन करके अन्त में समाधि के द्वारा अपने प्राणों का विसर्जन करके विजयादि पाँच प्रकार के अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं, उनका वर्णन है उसको अनुत्तरीपपादिक दशांग कहते हैं।
जिसमें दूत वाक्य, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता आदि अनेक प्रश्नों के अनुसार तीन काल सम्बन्धी धनधान्यादि का लाभालाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, जय-पराजय आदि का वर्णन होता है, उसको प्रश्नव्याकरण अंग कहते हैं। अथवा प्रश्न के अनुसार आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी, निर्वेजनी इन चार प्रकार की कथाओं का भी वर्णन प्रश्नव्याकरण में है।
जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार शुभाशुभ कर्मों की तीव्र मंद मध्यम आदि अनेक प्रकार की अनुभाग-शक्ति के फल देने रूप विषय का कथन किया गया है वह - विपाकसूत्रांग कहलाता है।
जिस अंग में तीन सौ बेसठ मिथ्यादृष्टियों का निराकरण किया जाता है, उसको दृष्टिवाद अंग कहते हैं।
दृष्टिवाद अंग के पाँच भेद हैं- परिक्रम, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और पूर्वगत ।
जिसमें गणित के करणसूत्रों का कथन है, वह परिक्रम है। उसके पाँच अधिकार हैं - चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति ।