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आराधनासमुच्चयम् ०६५
सापरायिक गुणस्थान से अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त होता है। इसके पश्चात् क्रम से अपूर्वकरण, अधःप्रवृत्तकरण रूप अप्रमत्त को प्राप्त होता है। अध: प्रवृत्तकरण तक गिरने का यही निश्चित क्रम है। इसके बाद यदि विशुद्धि हो तो ऊपर के गुणस्थान में चढ़ता है, यदि संक्लेश युक्त हो तो नीचे के गुणस्थान में चला जाता है। कोई नियम नहीं है।
उपशांतकषाय के अन्तसमय तक अनुक्रम से नीचे उतर कर अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होकर अप्रमत्त से प्रमत्त, प्रमत्त से अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार चढ़ता उतरता है। संक्लेश भाव के साथ अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय हो जाने पर चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है।
उपशमश्रेणी से गिर कर नीचे आते समय प्रतिस्थान आरोह की अपेक्षा दूनी अवस्थिति और दूना अनुभाग पड़ता है। स्थितिबंधापसरण के स्थान पर स्थिति बंधोत्सरण होता है अर्थात् श्रेणी पर आरूढ़ होते समय जो स्थितिकाण्डघात, गुण-श्रेणीनिर्जरा आदि आठ कार्य होते हैं, उतरते समय उनका क्रम उलटा होता
___ उपशम श्रेणी से उतरकर पुन: उसी सम्यक्त्व से श्रेणी पर आरूढ़ होना असंभव है। क्योंकि श्रेणी का काल अधिक है, उपशम श्रेणी से उतरे हुए द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल अल्प है।
द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति श्रेणी के सम्मुख हुए अप्रमत्त गुणस्थान में ही होती है। उस सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते समय असंख्यात बार प्रमत्त में जाता है, फिर अप्रमत्त में आ जाता है। यदि उपशम श्रेणी से उतरते समय मरण हो जाता है या पंचम गुणस्थान में आ जाता है तो चतुर्थ पंचम गुणस्थान में भी उपशम सम्यग्दर्शन का अस्तित्व पाया जाता है।
गोम्मटसार में भी कहा है कि अप्रमत्त क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तीन करण के द्वारा सात प्रकृतियों का उपशम कर द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। जिस लेश्या में मरता है, उसी में जाकर जन्म लेता
सायिक सम्यादर्शन की उत्पत्ति और उसका स्वरूप अविरतसम्यग्दृष्ट्याद्येषु चतुयपि गुणेषु कस्मिंश्चित्। वेदकदृष्टिस्त्रिकरण्यादिकषायान् विसंयोज्य ॥२९॥ निर्वृतियोग्ये क्षेत्रे काले लिङ्गे भवे तथा वयसि । शुभलेश्यात्रयवृद्धिं कषायहानि च संविदधत् ॥३०॥ क्षपकश्रेणीसदृश-प्रवेश-कालान्तरैस्त्रिभिः करणैः । हत्वा दृङ्मोहनयमाप्नोति क्षायिकी दृष्टिम् ।।३१।। त्रिकम्