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आराधनासमुच्चयम् ०७४
"चक्षु दर्शनावरण के क्षयोपशम से और चक्षु इन्द्रिय के अवलम्बन से मूर्त पदार्थों का विकल रूप (एकदेश) से जो सामान्य अवबोध कराता है, वह चक्षु दर्शन है।"१
जो चक्षु से प्रकाशित होता है, दिखता है अथवा चक्षु के द्वारा देखा जाता है, वह चक्षु दर्शन है अर्थात् चक्षुइन्द्रियज्ञान के पूर्व जो सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है, जो चक्षुज्ञान की उत्पत्ति का निमित्त है वह चक्षुदर्शन है। चक्षु दर्शन और चक्षु ज्ञान में निमित्त-नैमित्तिक वा कारण कार्य सम्बन्ध है। इसमें चैतन्य शब्द का प्रयोग होने से यह चैतन्य का स्वरूप है, ऐसा जाना जाता है।
अचक्षु दर्शन का लक्षण शेषेन्द्रियावबोधात् पूर्वं तद्विषयदर्शियज्ज्योतिः।
निर्गच्छति तदचक्षुर्दर्शनसंज्ञं स्वचैतन्यम् ॥४५ ।। अन्वयार्थ - शेषेन्द्रियावबोधात् - चक्षु इन्द्रिय को छोड़ कर शेष इन्द्रिय और मन सम्बन्धी ज्ञान के। पूर्व - पूर्व। तद्विषयदर्शि - उस विषय की दर्शक । यत् - जो। ज्योतिः - ज्योति । निर्गच्छति - निकलती, उत्पन्न होती है। तत् - वह । अचक्षुर्दर्शनसंज्ञं - अचक्षुदर्शन नामक । स्वचैतन्यं - आत्मा का उपयोग है।
अर्थ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण और मन से विकसित होने वाले ज्ञान के पूर्व जो उन इन्द्रियों के विषयों का प्रकाशित करने वाली ज्योति (आत्मा का व्यापार) प्रगट होती है, वह अचक्षुदर्शन उपयोग
है।
चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष इन्द्रियों के आवरण का क्षयोपशम होने पर स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण और मन के अवलम्बन से मूर्त एवं अमूर्त द्रव्यों को विकल्परूप (एकदेश) से जो सामान्यत: अवबोध कराता है, वह अचक्षु दर्शन है। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष इन्द्रियों के ज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो सामान्य से संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षु दर्शन है।
शंका - किसी स्थल पर वस्तु के सामान्य अवलोकन को दर्शन कहा है और कहीं पर आत्मसंवेदन या आत्मग्राहक को दर्शन कहा है, इन दोनों में सामंजस्य कैसे है ?
उत्तर - यदि सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह का त्यागकर नय विभाग से मध्यस्थता धारण करके व्याख्यान करता है तब तो सामान्य अवलोकन एवं आत्मग्राहक ये दोनों ही अर्थ घटित हो जाते हैं। क्योंकि तर्कशास्त्र में मुख्यता से अन्य मत को दृष्टि में रखकर कथन किया जाता है। इसलिए उसमें यदि कोई अन्य मतावलम्बी जैनाचार्य से पूछता है कि जैन सिद्धान्त में जीव के दर्शन और ज्ञान ये दो गुण माने गए हैं, वे कैसे घटित होते हैं ? तब उसके उत्तर में यदि उसे कहा जाए कि "आत्मग्राहक दर्शन है" १, पंचास्तिकाय तात्पर्यवृति गा. ४२१ २. ध.७/२.१.५६