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आराधनासमुन्वयम् ७२
व समस्त प्रकार के भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं, सम्यग्दर्शन को यह जीव जब प्राप्त हो जाता है, तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता, तब तक दुःखी बना रहता है।
तीन काल और तीन जगत् में जीवों के लिए सम्यक्त्व के समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है, मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी नहीं है। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, विभव, उच्चकुल, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं।
॥ इति सम्यग्दर्शनाराधना ॥
२. सम्यग्ज्ञानाराधना
दर्शनोपयोग दर्शयति यत्पदार्थानन्तर्योतिः प्रकाशवज्ज्ञानात् ।
पूर्वमनाकारं तच्चैतन्यं दर्शनं विन्द्यात् ॥४२ ।। अन्वयार्थ - यत् - जो। अन्तर्योति: - अन्तर्योति । प्रकाशवत् - प्रकाश के समान । ज्ञानात् - ज्ञान से। पूर्व - पहले। पदार्थान् - पदार्थों को। दर्शयति - दिखाती है। तत् - उस। अनाकारं - अनाकार । चैतन्यं - आत्मा के उपयोग को । दर्शनं - दर्शन | विन्द्यात् - समझो।
अर्थ - ज्ञान के पूर्व जो अन्तर्ज्योति प्रकाश के समान पदार्थों का अवलोकन कराती है, वह अनाकार चैतन्यभाव दर्शनोपयोग कहलाता है।
सम्यग्ज्ञान आराधना के कथन में आचार्यदेव ने सर्वप्रथम दर्शनोपयोग का कथन किया है। यह दर्शनोपयोग छद्मस्थों के ज्ञान के पूर्व होता है तथा अनाकार होता है क्योंकि ज्ञान साकार उपयोग है और दर्शन अनाकार उपयोग है। यह दर्शन अन्तश्चित्प्रकाशक है।
“अन्तश्चित् प्रकाश को दर्शन और बहिश्चित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं।"१
जो आलोकन करता है उसको आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात् वृत्ति को आत्मा (आलोक) की वृत्ति कहते हैं। आत्मा की वृत्ति अर्थात् आत्मवेदन रूप व्यापार को आलोकनवृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं और उसी को दर्शन कहते हैं।
बाह्य अर्थ को ग्रहण करने के पूर्व जो विशिष्ट आत्मस्वरूप का वेदन होता है, उसको दर्शन कहते हैं।
विषय-विषयी का सन्निपात होना दर्शन है अथवा प्रकाशवृत्ति को दर्शन कहते हैं। प्रकाश ज्ञान को कहते हैं और उस ज्ञान के लिए जो आत्मा का व्यापार होता है, उस प्रकाशवृत्ति को दर्शन कहते हैं।
१. ध, १११.१.४
२. ध. १/१.१.४