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आराधनासमुच्चयम् . ६४
आदि से मलिन श्रद्धा के साथ पा. औ..
उ गी पर मान होने का अभाव है।" (ध. १/११-१४६) इसलिए जो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा करता है तब सर्वप्रथम तीन करण के द्वारा अनन्तानुबंधिकषाय का विसंयोजन करता है।
अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करने में दो मत हैं। उच्चारणाचार्य का कथन है कि उपशमसम्यग्दृष्टि के चार अनन्तानुबंधी का विसंयोजन नहीं होता क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि के एक अवस्थित पद ही होता है तथा उपशम सम्यक्त्व के काल की अपेक्षा अनन्तानुबंधी के विसंयोजन का काल अधिक है। अथवा इसमें अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना के कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं, इससे प्रतीत होता है कि उपशम सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधी की विसंयोजना नहीं होती। (क.पा. २/१-१५)
धवला, लब्धिसार, गोम्मटसार, आदि ग्रन्थों में अनन्तानुबंधी की विसंयोजना स्वीकार की गई है। जिसका कथन पूर्व में द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन के कथन में किया है। इसी कथन की सूचना करने के लिए आचार्यदेव ने श्लोक में 'आचार्यमतेन' यह शब्द दिया है।
लब्धिसार में कहा है कि उपशम सम्यग्दर्शन के सम्मुख हुआ वेदक सम्यग्दृष्टि सर्वप्रथम पूर्वोक्त विधि से अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करता है। तदनन्तर तीन करण के द्वारा सम्यक्त्व प्रकृति का उपशम कर द्वितीयोपशमसम्यग्दर्शन को प्राप्त होता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन वाला उपशम श्रेणी में आरूढ़ होकर उसके काल की समाप्ति होने पर या तो क्रमश: १०-९-८-७ और छठे गुणस्थान को प्राप्त होता है और यदि आयु समाप्त हो जाती है तो मरण भी हो जाता है तथा जिनकी ऋद्धियाँ (संयम) नष्ट हो गयी हैं ऐसा प्राणी लेश्या के वश से मरकर जन्म को भी प्राप्त हो जाता है अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सहित मरकर स्वर्गवासी देव होते हैं, उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते हैं।
उपशम श्रेणी वाला द्वितीयोपशमसम्यादृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि दोनों ही हो सकता है। क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीय का उपशम वा क्षय नहीं किया है, वह उपशम श्रेणी पर आरूढ़ नहीं हो सकता। उपशांतकषाय अवस्था में आयु का क्षय हो जाने से मरण हो सकता है अथवा फिर कषायों की उदीरणा हो जाने से नीचे गिर जाता है।
उपशांतकषाय से प्रतिपात (गिरना) दो प्रकार से होता है। भवक्षय (आयुक्षय) निबंध और उपशमकालक्षय निबंध | उपशांतकषाय के काल में प्रथमादि से अन्तपर्यन्त किसी भी समय में आयु के विनाश से मरकर देवों में उत्पन्न होते हैं, तब चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है तथा उस चतुर्थ गुणस्थान के प्रथम समय में नियम से बंध, उदीरणा, संक्रमण आदि सारे करण उघाड़ता है अर्थात् यथाख्यात चारित्र की विशुद्धि के बल से उपशांतकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान में जिन कर्मों का उपशमन किया था उनका असंयत गुणस्थान में संक्लेश परिणामों के बल से अनुपशमन रूप उघाड़ना संभव है।
उपशांतकषाय का काल समाप्त होने पर प्रतिपात (गिरने वाला) जीव सूक्ष्म सांपरायिक गुणस्थान में गिरता है क्योंकि सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में जाने का अभाव है। सूक्ष्म