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आराधनासमुच्चयम् ६१
जिस जीव ने अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करके उपशम सम्यकदर्शन प्राप्त किया, पुनः सम्यग्दर्शन की विराधना करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, उसका एक आवलीकाल पर्यन्त मरण नहीं है।
अनन्तानुबंधी का पुन:संयोजन होने पर भी एक अन्तर्मुहूर्त काल तक मरण नहीं होता। उसी प्रकार सम्यक् मिथ्यात्व गुणस्थान में मरण नहीं होता, मारणान्तिक समुद्धात भी नहीं होता और आयुबंध नहीं होता। जिस गुणस्थान में आयु का बंध हुआ है, उसी गुणस्थान में जाकर मरण होता है। इसीलिए आचार्य ने श्लोक में कहा है कि इस गुणस्थान में तद्भवमरण नहीं है। 'तद्भवमरण' शब्द से मारणान्तिक समुद्घात और आयुबंध का अभाव सूचित किया है।
दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, यदि सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आ जाता है तो चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है।
"सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आने पर मिथ्यात्व गुणस्थान में और सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आने पर चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त होता है, इसका अन्य गुणस्थानों में जाने का अभाव है।" (ध, ४-५-९/३४३)
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट-जघन्य काल और स्वरूप अथ सम्यक्त्वं प्राप्तस्तत्कर्मोदयभवैश्च परिणामैः । क्षायोपशमिकसंज्ञैः शिथिलश्रद्धानजैर्वसति ।।२४ ।। अन्तर्मुहूर्तकालं जघन्यतस्तत्प्रयोग्यगुणयुक्तः ।
षट्षष्टिसागरोपमकालं चोत्कर्षतो विधिना ॥२५॥ युग्मम् ॥ अन्वयार्थ - अथ - इसके बाद । तत्कर्मोदयभवै:- सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न । शिथिलश्रद्धान:- शिथिल श्रद्धानज। क्षायोपशमिकसंज्ञैः - क्षायोपशमिक नामक। परिणामै: - परिणामों के द्वारा। सम्यक्त्वं - सम्यग्दर्शन को। प्राप्तः - प्राप्त होता है और । तत्प्रयोग्यगुणयुक्तः - इस सम्यग्दर्शन के योग्य गुणस्थान से युक्त होकर। विधिना - विधि से। जघन्यतः - जघन्य से। अन्तर्मुहूर्तकालं - अन्तर्मुहूर्तकाल है और | उत्कर्षत:- उत्कृष्ट से। विधिना - विधिपूर्वक । षट्पष्टि सागरोपमकालं - छासठ सागरोपमकाल तक । वसति - रहता है।
भावार्थ - क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व नामक प्रकृति के उदय से उत्पन्न होता है।
___ चार अनन्तानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यङ् मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय और आगामी उदय में आने वाली इन्हीं छह प्रकृतियों का सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्धक वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो तत्त्वश्रद्धान होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है। (स. सि. २/५)