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आराधनासमुच्चयम् ५५
इस प्रकार जीव स्वतः कालकृत नहीं है, ईश्वरकृत नहीं है, पुरुषार्थकृत नहीं है, नियतिकृत नहीं है, स्वभावकृत नहीं है और यदृच्छा से भी नहीं है, यह स्वत; कालकृत नहीं है, छह भंग हैं, उसी प्रकार 'परत:' की अपेक्षा छह भंग समझने चाहिए। जिस प्रकार जीव के १२ भेद स्वतः परत; की अपेक्षा होते हैं, उसी प्रकार अजीव आदि छह तत्त्वों के भी बारह-बारह विकल्प समझने चाहिए। इस प्रकार सातों जीवादि पदार्थों का बारह विकल्पों से गुणा करने पर अक्रियावादियों के ७ x १२ चौरासी भेद होते हैं। यह अक्रियावाद नामक मिथ्यात्व है क्योंकि इसमें नास्तित्व का एकान्त पक्ष है।
अज्ञानवाद का कथन और उसके ६७ भेद : असमीचीन ज्ञान को अज्ञान कहते हैं। शाकल्य, पिप्पलाद आदि अज्ञानवादियों का कथन है कि बिना विचारे अज्ञानपूर्वक किया गया कर्मबंध विफल हो जाता है। अत: अज्ञान ही श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञान वितण्डावादों की सृष्टि करता है। इस ज्ञान से ही एक वादी दूसरे के विरुद्ध तत्त्व प्ररूपणा करके विवाद का अखाड़ा बनाता है। वाद-विवाद से चित्त में कलुषता आदि दोष उत्पन्न होते हैं और उससे दीर्घ संसार में भ्रमण करना पड़ता है। अत: अनर्थमूलक ज्ञान को छोड़कर अज्ञान का ही आश्रय लेना चाहिए ।
अज्ञान से ज्ञानमूलक अहंकार भी उत्पन्न नहीं होगा और अहंकार के अभाव में चित्त में कलुषता नहीं होगी, कालुष्य के न होने से कर्मबन्ध की संभावना भी नहीं होगी। यदि कालुष्य भाव के बिना कर्म बंध होगा तो उसका तीव्रफल भोगना नहीं पड़ेगा। मन में राग-द्वेषादि रूप अभिनिवेश उत्पन्न न होने देने का सबसे सरल उपाय है ज्ञानपूर्वक व्यापार को छोड़कर अज्ञान में ही संतोष करना । क्योंकि जब तक ज्ञान रहेगा तब तक वह कुछ-न-कुछ रागद्वेषादि रूप उत्पात करता ही रहेगा। यह कभी शांत रहने वाला नहीं है। अत: मोक्ष के अभिलाषी, मोक्षमार्ग में लगे हुए मुमुक्षुओं को अज्ञान ही साधक हो सकता है, ज्ञान नहीं। इस प्रकार का कथन अज्ञान मिथ्यात्व है।
इस अज्ञान मिथ्यात्व के ६७ भंग हैं। अज्ञानवाद मिथ्यात्व में जीव, अजीव, आरत्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप, मोक्ष और उत्पत्ति ये दश पदार्थ माने हैं। इनमें से उत्पत्ति पद को छोड़कर जीवादि नौ पदों को १ सत्त्व, २ असत्त्व, ३ सदसत्त्व, ४ अवाच्यत्व, ५ सदवाच्यत्व, ६ असदवाच्यत्व, ७ सदसदवाच्यत्व इन सात भंगों से गुणा करनेपर ६३ भंग होते हैं।
सत्त्व - वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा सत् है। असत्त्व - वस्तु पर स्वरूप की अपेक्षा असत् है। सदसत्त्व - वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा सत् तथा परस्वरूप की अपेक्षा असत् होने से क्रमश: दोनों अपेक्षाओं से सदसदुभय रूप है। यद्यपि वस्तु स्वभाव से हमेशा ही सदसद् उभयधर्म वाली है, फिर भी जो अंश प्रयोग करने वाले को विवक्षित होता है तथा उद्भूत होता है, उसी अंश से वस्तु का सत्, असत् या क्रमश: विवक्षित सदसत् रूप से व्यवहार हो जाता है। अवाच्यत्त्व - जब सत्त्व और असत्त्व दोनों ही धर्मों को एक साथ एक ही शब्द से कहने की इच्छा होती है तब युगपत् दोनों धर्मों को प्रधान रूप से कहने