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आराधनासमुच्चयम् ३३
उनमें जो प्रथमोपशमिक सम्यग्दर्शन है, वह मिथ्यादृष्टि के ही होता है। द्वितीयोपशमिक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है। '
मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के होते हैं - सादि मिथ्यादृष्टि और अनादि मिथ्यादृष्टि । जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके छोड़ दिया है, जो पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त हो गये हैं, वे सादि मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं और जिन्होंने अभी तक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है, वे अनादि मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। सादि मिध्यादृष्टि भव्य ही होते हैं, परन्तु अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
जिनमें सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने की शक्ति है, किसी काल में सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं, वे भव्य कहलाते हैं और इनसे जो विपरीत हैं, जो सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते वे अभव्य कहलाते हैं । प्रथमोपशम सम्यक्स्थ उत्पन्न करने वाले की योग्यता
मिथ्यादृष्टिर्भव्यो द्विविधः संज्ञी समाप्तपर्याप्तिः । लब्धिचतुष्टययुक्तोऽत्यन्तविशुद्धश्चतुर्गतिजः ॥ १२ ॥
जाग्रदवस्थावस्थः साकारात्मोपयोगसंयुक्तः । योग्यस्थित्यनुभवभाक् सल्लेश्यावृद्धियुक्तश्च ॥ १३ ॥ त्रिकरणशुद्धिं कृत्वाप्यन्तरमुत्पादितत्रिदृग्मोहः । गृह्णात्याद्यं दर्शनमनन्तसंसारविच्छेदी ॥१४ ॥ त्रिकम् ॥
अन्वयार्थ - द्विविध: - दो प्रकार के । मिथ्यादृष्टिः - मिथ्यादृष्टि । भव्यः - भव्य । संज्ञी सैनी । समाप्तपर्याप्तिः - पर्याप्त । लब्धिचतुष्टययुक्तः चार लब्धियों से युक्त । अत्यन्त विशुद्धः
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अत्यन्त विशुद्ध । चतुर्गतिज - चारों गतियों में स्थित जाग्रदवस्थावस्थः जाग्रत अवस्था में अवस्थित । साकारात्मोपयोग संयुक्तः - साकार आत्मोपयोग से जो संयुक्त है। योग्यस्थित्यनुभवभाक् • योग्य स्थिति और अनुभाग का भागी है। सल्लेश्यावृद्धियुक्तः - शुभ लेश्या की वृद्धि से युक्त । च - और। त्रिकरणशुद्धि तीन करण शुद्धि को । कृत्वा करके । अन्तरं अन्तर में उत्पादित त्रिदृग्मोहः उत्पन्न किया है तीन प्रकार के दर्शनमोहको जिसने ऐसा प्राणी । अनन्तसंसार विच्छेदी - अनन्त संसार का नाशक । आद्यं - प्रथमोपशम । दर्शनं सम्यग्दर्शन । गृह्णाति ग्रहण करता है।
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भावार्थ भव्य जीव के ही सम्यग्दर्शन होता है, अभव्य के नहीं। भव्यों में भी सभी भव्य
सम्यग्दर्शन - उत्पत्ति के योग्य नहीं हैं, अपितु जो पंचेन्द्रिय है, संज्ञी है, पर्याप्त है, चार लब्धि (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य) से युक्त है, अत्यन्त विशुद्ध है, चारों गतियों में स्थित है, जाग्रत अवस्था में स्थित
१. द्वितीयोपशमिक सम्यग्दर्शन उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले के ही होता है।