________________
आराधनासमुच्चयम्
४६
उपशम सम्यग्दर्शन के साथ विरोधी का कथन परिहारमनःपर्ययबोधाहारर्द्धिजननमरणाद्यैः ।
रहितं तत्तत्कालो द्विविधोऽप्यन्तर्मुहूर्तः स्यात् ॥१६॥ अन्वयार्थ - तत् - इन दोनों सम्यग्दर्शनों का। द्विविधः - जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार का। काल:- काल । अपि - भी। अन्तर्मुहूर्तः - अन्तर्मुहूर्त । स्यात् - होता है। यह सम्यग्दर्शन। परिहारमन:पर्यय बोधाहारद्धिजननमरणाद्यैः - परिहारविशुद्धि संयम, मन:पर्यय ज्ञान, आहारक ऋद्धि, जन्म और मरण आदि से। रहितं - रहित।
भावार्थ - प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन इन दोनों के जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त हैं। इस सम्यग्दर्शन के साथ परिहारविशुद्धि संयम, मन:पर्यय ज्ञान और आहारक - ऋद्धि नहीं होते हैं। यह सम्यग्दर्शन जन्म-मरण से रहित है अर्थात् इस सम्यग्दर्शन में जन्म और मरण नहीं होता।
उपशम सम्यग्दर्शन की विराधना के कारण तत्कालस्यान्तर्यदि विराधितो वै भवेद् द्वितीयगणः।
नोचेद्दर्शनमोहत्रितयान्यतरोदयं याति ॥१७॥ अन्वयार्थ - तत्कालस्यान्तः - उस सम्यग्दर्शन के काल का अन्त होने पर। यदि - यदि। वै - निश्चय से। विराधितः - विराधना। भवेत् - होती है। दर्शनमोहत्रितयान्यतरोदयं - दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में से किसी का भी उदय । नोचेत् याति - नहीं होता है तो। द्वितीयगुण: - दूसरा गुणस्थान हो जाता है।
भावार्थ - जब उपशम सम्यग्दर्शन का अन्तर्मुहूर्तकाल पूरा हो जाता है, तब सम्यग्दर्शन की विराधना हो जाती है, तो मिथ्यात्व में चला जाता है।
यदि दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों में से किसी भी प्रकृति का उदय नहीं होता है, परन्तु अनन्तानुबन्धी क्रोधादि में से किसी एक प्रकृति का उदय आ जाता है तो फिर वह प्राणी दूसरे गुणस्थान में चला जाता है ||१७॥
दूसरे गुणस्थान का काल कालो द्वितीयगुणिनो ह्यपरः समयः परः षडावलिकः ।
मिथ्यात्वेऽसौ पतति तु भूम्यामिव गिरिशिरस्खलितः॥१८॥ अन्वयार्थ - द्वितीयगुणिनः - दूसरे गुणस्थान का । अपरः - जघन्य। कालः - काल। समय: - एक समय और। परः - उत्कृष्ट काल। षडावलिक: - छह आवली मात्र है। तु - इसके बाद।