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आराधनासमुच्चयम्
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ही है, एक ही है, अनेक ही है, सावयव है, निरवयव है आदि एकान्त अभिनिवेश को एकान्त मिथ्यादर्शन कहते हैं।
विपरीत मिथ्यात्व आत्मस्थित विपरीत मिथ्यादर्शन परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यास को उत्पन्न करता है।
कारण विपर्यास - सांख्य मानता है कि रूपादि का एक कारण प्रकृति है जो अमूर्त है और नित्य है। वैशेषिक कहते हैं कि पृथ्वी आदि के परमाणु भिन्न-भिन्न जाति के हैं। उनमें पृथ्वी परमाणु चार गुण वाले हैं, जल परमाणु तीन गुण वाले हैं, अग्नि परमाणु दो गुण वाले हैं और वायु परमाणु केवल एक स्पर्श गुण वाला है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं। बौद्ध कहते हैं कि पृथ्वी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं। इन सबके समुदाय को एक रूपपरमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते हैं कि पृथ्वी में काठिन्यादि गुण हैं, जल में द्रवत्वादि गुण हैं, अग्नि में उष्णत्वादि गुण हैं और वायु में ईरणन्वादि गुण हैं। हाप पत्कार पृशान-पृथक जाति के परमाणु अग्नि आदि कार्य को उत्पन्न करते हैं।
भेदाभेद विपर्यास - कारण से कार्य को वा गुण से गुणी को सर्वथा भिन्न वा अभिन्न मानना ।
स्वरूप विपर्यास - रूपादिक निर्विकल्प है या रूपादिक है ही नहीं, या रूपादिक के आकार रूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है, उसका आलम्बनभूत कोई बाह्य पदार्थ नहीं है।
इस प्रकार वस्तु स्वरूप के विपरीत श्रद्धा करना विपरीत मिथ्यात्व है अथवा सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना, स्त्री को मुक्ति प्राप्त करना मानना आदि श्रद्धान विपरीत मिथ्यात्व
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं कि एक या दो है ? इस प्रकार चलचित्त रहना, वस्तु स्वरूप का निर्णय नहीं करना, संशय मिथ्यात्व है।
सुदेव, कुदेव, सग्रन्थ, निर्ग्रन्थ सबको एक समान मानना, सबका आदर करना विनय मिथ्यादर्शन है।
हित-अहित की परीक्षा नहीं करना अज्ञान मिथ्यादर्शन है। अर्थात् जिसमें हित-अहित का विचार नहीं है, नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीव अजीव आदि पदार्थ नहीं हैं, अतः जीवादि पदार्थ अज्ञान ही हैं, 'पशुवध में धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश देना अज्ञान मिथ्यात्व
मूल में मिध्यादर्शन के दो भेद हैं - नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । इनमें से जो परोपदेश के बिना मोहनीय कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है।