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आराधनासमुच्चयम् ४८
अस नाली के भीतर जन्म नहीं लेते। सुदर्शन मेरुतल से अधोभागवर्त्ती एकेन्द्रिय जीवों में जन्म नहीं लेते। भवनवासी लोक के मूल भाग से ऊपर ही जन्म लेते हैं, भवनवासी देवों में नहीं । सासादन प्राप्ति के द्वितीय समय से लेकर आवली के असंख्यातवें भाग काल तक मरने वाले जीव नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। इसके बाद आवली के असंख्यात भागकाल तक मरने वाले, मनुष्यों में जन्म लेने योग्य हैं। इसी प्रकार आगे क्रमशः संज्ञी तिर्यंच, असंज्ञी तिर्यञ्च चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय एवं एकेन्द्रियों में जन्म लेने योग्य काल होता है।
कोई आचार्य एकेन्द्रिय एवं विकलत्रयों में सासादन की उत्पत्ति नहीं मानते। उनका कहना है कि सासादन सम्यग्दृष्टि एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रियों में समुद्धात तो करते हैं, परन्तु जन्म नहीं लेते। मरते समय वे मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं।
अथ मिथ्यात्वोदयगो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षात् । पुद्गल परिवर्तार्थं तिष्ठति तद्विविधपरिणामः ॥ २० ॥
अन्वयार्थ अथ दूसरे गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने पर मिथ्यात्वोदयगः - मिथ्यात्व
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के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। तत् वह मिथ्यात्व गुणस्थान । द्विविधपरिणामः - दो प्रकार के परिणामों के साथ । जघन्यतः जघन्य से । अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त्तकाल पर्यन्त । उत्कर्षात् - उत्कृष्ट से। पुल परिवर्तार्थं अर्धपुद्रल परिवर्तन काल तक । तिष्ठति रहता है।
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भावार्थ - जब सासादन गुणस्थान का काल समाप्त हो जाता है तब मिथ्यात्व कर्म के उदय से वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है । इसको सादि मिध्यादृष्टि कहते हैं।
आचार्यदेव ने इस मिथ्यादृष्टि के दो प्रकार के परिणाम कहे हैं। इनमें कर्मचेतना, कर्मफलचेतना रूप दो प्रकार के परिणाम होते हैं। कर्मफलचेतना वाला हिताहित के विचार से रहित है परन्तु कर्मचेतना की प्रधानता वाले व्यवहार पंचाचार में प्रवृत्ति भी करते हैं।
जो केवल व्यवहार नयावलम्बी हैं वे वास्तव में भिन्न साध्य-साधन भाव के अवलोकन द्वारा निरन्तर अत्यन्त खेद पाते हुए पुनः पुनः धर्मादिक कार्यों में श्रद्धानपूर्वक चित्त लगाते हैं, श्रुत के संस्कार के कारण विचित्र विकल्प जालों में फँसे रहते हैं और मुनिचर्या वा तप में सदा प्रवृत्ति करते रहते हैं। कभी किसी विषय की रुचि करते हैं वा विकल्प करते हैं और कभी कुछ आचरण करते हैं ।
दर्शनाचरण के लिए प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य को भी धारण करते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अमूढदृष्टि आदि दोषों को दूर करने के लिए तत्पर रहते हैं। उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य, धर्म प्रभावना की भावना करते हुए बार-बार उत्साहित चित्त वाले भी होते हैं।
ज्ञानाचार के लिए स्वाध्याय काल का अवलोकन करते हैं। बहुत प्रकार के विनय का प्रपंच दिखाते