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के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्य जीव के जो दर्शनमोहनीय के उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है, वह बीज सम्यक्त्व है अथवा सूक्ष्म अर्थ का कथन करने वाले 'ह्रीं' आदि बीजाक्षरों के अर्थ को सुनकर जिनधर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा होती है, वह बीज सम्यग्दर्शन है।
परपुध्व
जो भव्य जीव जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से सुनकर श्रद्धान करता है, वह संक्षेपदृष्टि वा संक्षेप सम्यग्दर्शन है ।
जो द्वादशांग के विषय को नय-निक्षेपादि के द्वारा विस्तार से जानकर श्रद्धान करता है, वह विस्तार सम्यग्दर्शन है।
वचन विस्तार के बिना केवल अर्थग्रहण से जो जिनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अर्थ सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
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अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो अचल श्रद्धान होता है, वह अवगाढ़ सम्यग्दर्शन कहलाता है।
परमावधि या केवलज्ञानदर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश से जिसकी आत्मा विशुद्ध है, वह परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन कहलाता है।
शब्दों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन संख्यात प्रकार का है, श्रद्धान करने वालों की अपेक्षा असंख्यात प्रकार का है और श्रद्धान करने योग्य पदार्थ वा अध्यवसायों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन अनन्त प्रकार का भी है । (रा. वा. १ / ७ )
उत्पत्ति की अपेक्षा उपशमज सम्यग्दर्शन के भेद
तेषूपशमजसम्यग्दर्शनमुत्पत्तितो द्विधा भवति । मिथ्यादृष्टेराद्यं वेदकसम्यग्दृशो ह्यन्यत् ॥ ११ ॥
अन्वयार्थ तेषु उन तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों में उपशमजसम्यग्दर्शनं औपशमिक सम्यग्दर्शन । उत्पत्तित: उत्पत्ति की अपेक्षा । द्विधा - दो प्रकार का । भवति होता है (प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम) । मिथ्यादृष्टेः - मिथ्यादृष्टि के आद्यं प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। हि - और। वेदक सम्यग्दृश :- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के अन्यत् - दूसरा ( द्वितीयोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । )
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क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है। उनमें जो औपशमिक सम्यग्दर्शन है, वह उत्पत्ति की अपेक्षा दो प्रकार का है: प्रथमोपशमिक और द्वितीयोपशमिक |