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आराधनासमुच्चयम् ३७
सल्लेश्या वृद्धियुक्त - कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्य, शुक्ल के भेद से लेश्या छह प्रकार की है। उनमें कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्या अशुभ हैं और पीत, पद्य एवं शुक्ल ये तीन लेश्या शुभ हैं। छहों लेश्या वाले जीव इस सम्यग्दर्शन को उत्पन्न कर सकते हैं, क्योंकि नरक गति में तो तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं, उनको प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन हो सकता है, अतः सल्लेश्यावृद्धियुक्त का अर्थ होता है कि यदि अशुभ लेश्या है तो हीयमान होनी चाहिए और शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होनी चाहिए क्योंकि अशुभ लेश्या की वृद्धि और शुभ लेश्याओं की हानि संक्लेश परिणामों से होती है, संक्लेश परियाम वाले सम्यग्दर्शन के प्रारंभक नहीं होते। इससे विपरीत अर्थात् अशुभ लेश्याओं की हीयमानता, शुभ लेश्याओं की वृद्धि, विशुद्ध परिणामों से होती है और विशुद्ध परिणाम वाला ही सम्यग्दर्शन का प्रारंभक होता है।
मिथ्यादृष्टि, भव्य, संज्ञी, पर्याप्त, लब्धिचतुष्टययुक्त, अत्यन्त विशुद्ध, चतुर्गतिज, जाग्रदवस्थावस्थ, साकार उपयोगी, योग्य स्थिति (अन्त:कोटाकोटि प्रमाण स्थिति), योग्य अनुभाग और सल्लेश्या युक्त यह सारी अवस्था पूर्व की है, यह अभव्य को भी प्राप्त हो सकती है। यद्यपि इनकी प्राप्ति के बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता परन्तु इनके होने पर सम्यग्दर्शन हो ही जायेगा, ऐसा नियम नहीं है।
___ जिस प्रकार बीज बोने के पूर्व क्षेत्र की शुद्धि करते हैं, तदनन्तर बीज बोते हैं, तब अंकुर पैदा होता है तथा धान्य की प्राप्ति होती है; उसी प्रकार ऊपर कथित सारी बातें क्षेत्र की शुद्धि के समान हैं। इसमें बीज बोने रूप तीन करण (पाँचवीं करणलब्धि) है। इसलिए आचार्यदेव ने लिखा है - “त्रिकरणशुद्धिं कृत्वा" तीन करण शुद्धि करके सम्यग्दर्शन उत्पन्न करके मिथ्यात्व के तीन टुकड़े करता है।
तीन करण शुद्धि - अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की है। करण का अर्थ होता है परिणाम, उन परिणामों की शुद्धि त्रिकरण शुद्धि कहलाती है।
___ यहाँ पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं।
अध:करण में अनेक प्रकार के जीव स्थित रहते हैं, उनके परिणाम परस्पर समान नहीं होते हैं। कोई जीव, कुछ समय बाद अध:करण मॉडने वाला अधिक विशुद्धि कर लेता है, पहले वाला इतनी विशुद्धि नहीं कर सकता, अत: इसको अध:करण कहते हैं।
__ अधःप्रवृत्तकरण के चार आवश्यक होते हैं - प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। उस अनन्त गुणी विशुद्धि के द्वारा अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय अर्थात् निम्ब एवं कांजी रूप अनुभाग को प्रति समय अनन्तगुणाहीन बाँधना । प्रशस्त प्रकृतियों के चतुःस्थानीय (गुड़, खांड, मिश्री एवं अमृत) रूप अनुभाग की प्रतिसमय अनन्त गुणी वृद्धि होना। स्थिति बंधापसरण अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जो कर्मों का स्थितिबंध होता है उसके अन्तिम समय पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति को बाँधता