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आराधनासमुच्चयम् ॥४२
में गुणश्रेणी निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिकाण्डघात, अनुभागकाण्डधात करने का सामर्थ्य नहीं है। यद्यपि स्थिति भी उत्तरोत्तर पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन-हीन बाँधता है, परन्तु स्थितिकाण्डघात नहीं कर सकता। जब शीघ्रता से परिणामों की अपूर्व-अपूर्व वृद्धि होने लगती है, तब वे परिणाम अपूर्वकरण कालाले हैं। इन परिनामों से मुणोणी निर्जा, स्थितिकाण्डघात, अनुभागकाण्डघात और गुणसंक्रमण रूप कार्य होते हैं तथा स्थिति बंधापसरण भी होते हैं।
प्रतिक्षण विशुद्धि में अत्यन्त वृद्धि होने पर वह प्राणी अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। इसमें परिणाम अधिक वेग से वर्द्धमान होते हैं। ये तीनों ही करण जीव के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं। इनको प्राप्त करने में कोई अधिक समय भी नहीं लगता। तीनों ही प्रकार के परिणाम अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में पूरे हो जाते हैं। __ अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात भाग बीत जाने पर सम्यग्दर्शन सम्मुखी प्राणी अन्तरकरण करता है।
परिणामों की विशुद्धि के कारण सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशों में कुछ निषेकों का, अपना स्थान छोड़कर, उत्कर्षण वा अपकर्षण द्वारा ऊपर एवं नीचे के निषेकों में मिल जाना ही अन्तरकरण है।
इन अन्तरकरण परिणामों द्वारा मिथ्यात्व कर्म के निषेकों की एक अटूट पंक्ति टूट कर दो भागों में विभाजित हो जाती है - एक पूर्वस्थिति और दूसरी उपरितनस्थिति । मध्य में अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण निषेकों का अन्तर पड़ जाता है। तत्पश्चात उन्हीं परिणामों के प्रभाव से अनादिकालीन मिथ्यात्व नामा कर्म तीन भागों में विभाजित हो जाता है। - मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । ये तीनों स्वतंत्र प्रकृतियाँ नहीं हैं, बल्कि उस एक मिथ्यात्व प्रकृति में ही कुछ प्रदेशों का अनुभाग तो पूर्व के समान रह जाता है, वह मिथ्यात्व प्रकृति कहलाती है। कुछ कर्मनिषकों का अनुभाग अनन्तगुणा हीन हो जाता है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं और कुछ निषेकोंका अनुभाग घटकर उससे भी अनन्त गुणा हीन हो जाता है उसको सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं। अन्तरकरण के द्वारा इन तीनों भागों (प्रकृतियों) की अन्तर्मुहूर्त के लिए ऐसी मूर्छित सी अवस्था हो जाती है कि वे न उदयावली में प्रवेश कर पाते हैं और न उनका उत्कर्षण, अपकर्षण आदि हो सकता है। तब इतने काल तक उदयावली में से दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसको ही उपशमकरण कहते हैं। इसके होने पर जीव को उपशम सम्यक्त्य उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि विरोधी कर्म का अभाव हो गया है, परन्तु अन्तर्मुहूर्त मात्र अवधि पूरी हो जाने पर वे कर्म पुनः सचेष्ट हो उठते हैं और उदयावली में प्रवेश कर जाते हैं। (ष.खं. ६/१९-८/सूत्र ३-८/ २०३-२३८)
१. पूर्ववत् जैसे का तैसा रह जाना पूर्वस्थिति है। २. उदयावली तथा गुणश्रेणी के ऊपर बहुत काल तक उदय आने योग्य निषेकों के समूह को उपरितन स्थिति कहते हैं।