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आराधनासमुच्चयम् . ३५
सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग का घात करके अन्त:कोड़ाकोड़ी स्थिति में एवं द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं।
प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के सम्मुख हुआ जीव विशुद्धता की वृद्धि करता हुआ प्रायोग्य लब्धि के प्रथम समय से लेकर पूर्व स्थिति बंध के संख्यातवें भाग मात्र अन्त:कोटाकोटी प्रमाण सात कर्मों का स्थितिबंध करता है, आयु कर्म को छोड़कर।
यह प्राणी इस मण्य अपशम्न एकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय अनन्त गुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतु:स्थानीय अनुभाग प्रतिसमय अनन्त गुणा बढ्ता बाँधता है।।
मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधिचतुष्क, स्त्यानगृद्धि त्रिक, देव चतुष्क, वज्रवृषभनाराच, प्रशस्त विहायोगति, सुभगादि (सुभग, सुस्वर, आदेय) तीन, नीच गोत्र इन २९ प्रकृतियों का उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तथा महादण्डक में कही गई ६१ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है।
___ उदयवान प्रकृतियों के उदय की अपेक्षा जो उदय को प्राप्त हुआ एक निषेक है उसी का भोक्ता होता है। अप्रशस्त प्रकृतियों के द्विस्थान रूप और प्रशस्त प्रकृतियों के चतु:स्थानीय रूप अनुभाग का भोक्ता होता है। उदयागत प्रकृतियों के अजघन्य वा अनुत्कृष्ट प्रदेशों का भोक्ता होता है।
जो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग उदय रूप हों, उन्हीं की उदीरणा करने वाला होता है।
सत्ता रूप प्रकृतियों के स्थिति, अनुभाग प्रदेश अजघन्य और अनुत्कृष्ट होते हैं। इस प्रकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चतुष्क है, अत: बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्व इन सब में चार प्रकार का बन्ध कहा है। यह क्रम प्रायोग्य लब्धि के अन्त पर्यन्त जानना चाहिए। इन चार लब्धियों से युक्त को लब्धि चतुष्टय युक्त कहा है।
अत्यंतविशुद्धः - कषायों के विपाक की मन्दता को विशुद्ध स्थान कहते हैं। साता वेदनीय, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बंध के कारणभूत कषायस्थानों को विशुद्धिस्थान कहते हैं। सम्यग्दर्शन के सम्मुख हुए जीव के शुभकर्म प्रकृतियों का अनुभाग विशेष होता है।
चतुर्गतिज: - चारों गतियों के जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं, परन्तु तिर्यञ्च गति में गर्भज जीव ही प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, सम्मूर्छन नहीं।
जाग्रदवस्थावस्थः - जो जीव जाग्रत अवस्था में अवस्थित है, वही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, निद्रा अवस्था में नहीं। निद्रा से यहाँ स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला इन तीन निद्राओं को ग्रहण किया है।