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आराधनासमुच्चयम् ७३०
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं,
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ।।८॥ समयसारकलश ये नव तत्त्व जीव और अजीव की पर्यायें हैं। उन पर्यायों में अनादि काल से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय से प्रकट हुई है। जैसे अनेक वर्ण वा कीट कालिमा से आच्छादित स्वर्ण स्वर्णकार के द्वारा प्रकट होता है, अत: उन सर्व नव तत्त्वों से भिन्न शुद्धात्मा का अवलोकन करो, पद-पद पर इसी का ध्यान करो।
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्नुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं,
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोस्तु नः।। शुद्ध निश्चयनय से जो एकत्व में नियत, सर्वगुणों में व्याप्त पूर्ण ज्ञान घन आत्मा है, उस आत्मा का सर्व द्रव्यों से भिन्न अवलोकन करना ही सम्यग्दर्शन है, इसलिए नव पदार्थ की संतति को छोड़कर एक शुद्ध आत्मा ही हमको प्राप्त होवे।
इस प्रकार नव तत्त्व को जानने का कारण शुद्ध आत्मतत्त्व को जानना क्योंकि अनादिकाल से नव तत्त्व के मध्य में आत्मतत्त्व छिपा हुआ है, उसका ज्ञान तत्त्व को जाने बिना नहीं होता। अत: नव तत्त्व का श्रद्धान रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शन का कारण है और निश्चय उसका कार्य है। नवतत्त्व ज्ञेय हैं और उनमें शुद्धात्मतत्त्व उपादेय है।
अथवा भूतार्थ नय से ज्ञात जीवादि सात तत्त्व वा नौ पदार्थ व्यवहार से सम्यग्दर्शन है क्योंकि इन तत्त्वों की जानकारी के माध्यम से शुद्धनय से स्थापित आत्मा की अनुभूति होती है। इसलिए व्यवहार सम्यग्दर्शन कारण है और निश्चय कार्य है तथा इनमें साध्य, साधक भाव भी है।
आगम भाषा में जिसको व्यवहार एवं निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं, अध्यात्म भाषा में उसी को सराग एवं वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं।
शुद्ध जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान रूप सराग सम्यग्दर्शन को ही व्यवहार सम्यग्दर्शन जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के अविनाभावी वीतराग सम्यग्दर्शन का ही दूसरा नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है। (द्रव्यसंग्रह टीका ४१)
प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि के द्वारा अभिव्यक्त होने वाला सराग सम्यग्दर्शन ही व्यवहार सम्यग्दर्शन है।