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आराधनासमुच्चयम् : २६
से दर्शन मोहनीय के क्षय का निमित्त है, अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि ही दर्शनमोह का नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है।
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि शिथिल श्रद्धानी होता है। अतः वृद्ध पुरुष के द्वारा पकड़ी हुई लकड़ी जैसे कम्पायमान रहती है, उसी प्रकार इस सम्यग्दृष्टि के परिणाम शिथिल रहते हैं। तत्त्वश्रद्धान में अकम्प नहीं रहता इसलिए कुगुरु और कुदृष्टान्तों के द्वारा उसे सम्यग्दर्शन को छोड़ते देर नहीं लगती। जैसे श्रेणिक राजा ने बौद्ध साधुओं के कहने से सम्यग्दर्शन का परित्याग कर दिया था । '
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का एक नाम कृष्णकृत्य वेदक भी है। जब यह जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन करने के सम्मुख होता है तब सर्वप्रथम तीन करण करके अनन्तानुबन्धी चार कषाय की सत्ता - व्युच्छित्ति करता है पुनः अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके तीन करण के द्वारा मिथ्यात्व एवं सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति का नाश करके केवल सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करता है, तब अन्तर्मुहूर्त तक कृतकृत्य वेदक होता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद वह नियम से सम्यक्त्व प्रकृति का नाश कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि बन जाता है। यद्यपि यह सम्यग्दर्शन क्षायिक सम्यग्दर्शन के सम्मुख होने से क्षायिक ही है परन्तु सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करने वाला होने से वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है, अतः इसका नाम कृतकृत्य वेदक है।
वेदक ( क्षायोपशमिक) सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर जीव की बुद्धि शुभानुबन्धी हो जाती है। शुचि जिनधर्म में अनुराग कर्म में रति उत्पन्न होती है। श्रुत के प्रति संवेग (प्रीति) उत्पन्न होता है। तत्त्वार्थ में श्रद्धान, एवं संसार से निर्वेद (विरक्ति) जागृत होती है। यह सम्यग्दर्शन अनादि मिथ्यादृष्टि के नहीं होता है, सादि मिथ्यादृष्टि के ही होता है।
सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है, उसके बाद मिध्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हो जाने के बाद सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आ जाने पर क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है। जिस जीव ने उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर पल्य का असंख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रकृति की उद्वेलना कर दी है ऐसे सादि मिध्यादृष्टि को भी क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है।
मिथ्यात्व गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहने के बाद ही क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है।
वेदक सम्यग्दृष्टि में असंख्यातवें भाग सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन से च्युत होकर मिध्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं। उसके असंख्यातवें भाग क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जाने से तृतीय गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं और शेष, क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर मोक्ष चले जाते हैं।
यह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एक दिन में हजारों बार छूट सकता है और पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५
२. घवला १ / १.१.१२