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आराधनासमुस्वयम् ०२५
अनादि मिथ्यादृष्टि उपशम सम्यग्दर्शन का अन्तर्मुहू काल समाप्त हो जाने पर सासादन गुणस्थान में जाकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। परन्तु जो सादि मिथ्यादृष्टि है वह सम्यकच प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि एवं मिश्र प्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थानवर्ती और मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यादृष्टि भी हो सकता है।
दर्शन मोहनीय का उपशम चारों गतियों में होता है, परन्तु तिर्यंच गति में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त और गर्भज के ही होता है, सम्मूछन के नहीं। साकार उपयोगी ही इस सम्यग्दर्शन का प्रारंभक होता है।
प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के अभिमुख जीव असयत ही होता है, साकारोपयोगी होता है अनाकार उपयोगी नहीं होता क्योंकि अनाकार उपयोगी के बाह्य अर्थप्रवृत्ति का अभाव है। कृष्णादि छहों लेश्याओं में हो सकता है, परन्तु अशुभ लेश्या के अंश हीयमान होने चाहिए और शुभ लेश्या के अंश वर्द्धमान होने चाहिए। उपशम सम्यग्दर्शन करने के लिए अधः करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों की विशुद्धि होनी चाहिए।
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से होता है, मिथ्यात्व से नहीं। यह सम्यक्त्व उपशम श्रेणी के सम्मुख होने वाले जीव के होता है। इस सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति अप्रमत्त गुणस्थान में होती है, परन्तु श्रेणी पर आरूढ़ होता है तब ११वें गुणस्थान तक चला जाता है और ऊँचे से गिरता है तो क्रम से १०, ९, ८,७, ६ गुणस्थान को प्राप्त होता है। देशसंयत और असंयत में भी आ सकता है तथा मिथ्यात्व का उदय आने पर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है तथा मिश्र प्रकृति के उदय से तीसरे गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। किसी आचार्य के मतानुसार अनन्तानुबन्धी कषाय की किसी प्रकृति का उदय आने पर दूसरे गुणस्थान में भी जा सकता है।
वेदक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, मिश्र सम्यग्दर्शन ये तीनों एकार्थवाची हैं। इन तीनों में शब्दभेद है, परन्तु अर्थभेद नहीं है।
क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन का लक्षण चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय और इन्हीं का सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती स्पर्धक वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहलाता है।
जिसकी सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्म की भेद रूप प्रकृति के उदय से यह जीव क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दृष्टि होता है।
सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों में जो चल, मलिन और अवगाढ श्रद्धान होता है वह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कहलाता है। यद्यपि यह सम्यग्दर्शन चल, मल आदि दोषों से युक्त है तथापि निश्चय