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आराधनासमुच्चयम् -२३
देखकर चित्त का आई हो जाना, उनके दुःख को दूर करने का प्रयत्न करना करुणा है अर्थात् दीनों पर दया भाव रखना ही करुणा या दया है।
भगवती आराधना में लिखा है - शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक ऐसी असह्य दुःखराशि प्राणियों को सता रही है. यह देखकर अहो ! इन दीन प्राणियों ने मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से जिन अशुभ कर्मों का उपार्जन किया था वे कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का निमित्त पाकर उदय में आकर फल दे रहे हैं। इनका असाता कर्म कैसे दूर हो' इत्यादि विचार कर उनको धर्म का उपदेश देना, कर्मबंध के कारणों का स्वरूप बताकर उनको सन्मार्ग में लगाना करुणा है। करुणा सम्यग्दर्शन का चिह्न है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका में लिखा है - जिनभगवान के उपदेश से दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण जिस श्रावक के हृदय में प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उसके धर्म कहाँ से हो सकता है। प्राणिदया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, सर्व सम्पत्तियों का स्थान है और गुणों का भण्डार है। अत: करुणामय हृदय का होना परम आवश्यक है। धवला की १३वीं पुस्तक में करुणा को जीव का स्वभाव कहा है और अकरुणा (अदया) को संयमघाती कर्म (कषाय) का फल कहा है। अत: 'धर्मस्य मूलं दया' धर्म रूपी वृक्ष की जड़ दया है।
प्रश्न - प्रवचनसार में करुणा को मोह का चिह्न कहा है। पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिर्यंचों व मनुष्यों के प्रति करुणा भाव तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) ये सब मोह के चिह्न हैं। अत: तिर्यंच और मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणा बुद्धि से मोह को जानकर तत्काल उत्पन्न होते ही तीनों प्रकार (पदार्थों का अयथार्थ ग्रहण, तिर्यञ्च-मनुष्यों के प्रति करुणा भाव, विषयों की संगति) के मोह को नष्ट करना चाहिए।
उत्तर - शुद्धात्मोपलब्धि लक्षण परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणाभाव (दया परिणाम) मोह का चिह्न है। उपेक्षासंयम की प्राप्ति के पूर्व सराग अवस्था में दया का अभाव दर्शनमोह का चिह्न है। इसलिए सरागसंयमी, देशसंयमी तथा असंयत सम्यग्दृष्टि का करुणा रूप परिणाम सम्यग्दर्शन का चिह्न है।
अस्तित्व के भाव को आस्तिक्य कहते हैं। सर्वप्रथम शरीर से पृथक् अपनी आत्मा के अस्तित्व पर दृढ़ विश्वास, आस्था होना आस्तिक्य है। आत्मस्वरूप का भान जिनवाणी के द्वारा होता है। जिनवाणी का उत्पाद सर्वज्ञदेव से होता है और इसकी रचना गणधर (गुरु) के द्वारा होती है अतः देव, शास्त्र और गुरु के प्रति दृढ़ आस्था ही आस्तिक्य भाव है।
सर्वज्ञदेव, शास्त्र, गुरु, व्रत और जीवादि तत्त्वों के स्वरूप में संशय नहीं करके, शास्त्र में जो इनके स्वरूप का कथन किया है, यह वैसा ही है, अन्य रूप नहीं है, ऐसी रुचि ही सम्यग्दर्शन का चिह्न है।