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आराधनासमुच्चयम् ०२४
स्वत:सिद्ध नव तत्त्वों के सद्भाव में धर्म, धर्म के कारण और धर्म के फल में जो निश्चय होता है, अडोल अकम्प विश्वास होता है, वह जीवादि पदार्थों में अस्तित्व बुद्धि रखने वाला आस्तिक्य गुण है। यह आस्तिक्य गुण ही प्रशम, संवेग एवं अनुकम्पा का कारण है क्योंकि आस्तिक्य भाव के बिना किसी भी गुण का प्रादुर्भाव नहीं होता। ये चार सम्यग्दर्शन के चिह्न हैं।
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों के या अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व इन पाँच प्रकृतियों के उपशम से जो तत्त्व श्रद्धान होता है उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं।
यह औपशमिक सम्यग्दर्शन प्रथमोपशमिक सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन के भेद से दो प्रकार का है। मिथ्यात्व गुणस्थान से दर्शन मोहनीय की तीन या एक प्रकृति के तथा अनन्तानुबन्धी की चारों प्रकृतियों के उपशमन से प्रथमौपशमिक सम्यग्दर्शन होता है।
जिस प्रकार पंक (कीचड़) आदि जनित कालुष्य के प्रशांत होने पर जल निर्मल हो जाता है उसी प्रकार दर्शन मोहादि सात प्रकृतियों के उपशम हो जाने पर सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, वह औपशमिक सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन है। उपशम सम्यक्त्व के होने पर जीव के सत्यार्थ देव से अनन्य भक्ति भाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों के मतों में असम्मोह प्रगट होता है।
उपशम सम्यग्दर्शन सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का है। जो उपशमक मिथ्यादृष्टि सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, उसे लाभ सर्वोपशमना से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव (अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्व को प्राप्त किया था किन्तु पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तथा सम्यक्त्व प्रकृति एवं सम्यक्त्व मिथ्यात्व कर्म की उद्वेलना कर बहुत काल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है अर्थात् अनादि तुल्य सादि मिथ्यादृष्टि) प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिर कर शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को ग्रहण करता है अर्थात् सादि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वोपशम' और देशोपशम से भजनीय है। सादि मिथ्यादृष्टि के यदि सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय इन दो प्रकृतियों का सत्त्व हो तो उसके सात प्रकृतियों के उपशम से सम्यग्दर्शन होता है और यदि इन दो प्रकृतियों का सत्व नहीं है अर्थात् जिस सादि मिथ्यादृष्टि के इन दो प्रकृतियों की उद्वेलना हो चुकी हो, जो अनादि मिथ्यादृष्टि के तुल्य है उसके और अनादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी की एक साथ उपशमना होती है अर्थात् पाँच प्रकृतियों का उपशम कर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त उपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता
१. तीनों प्रकृतियों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं। २. सम्यक्त्व प्रकृति सम्बन्धी देशघाती के उदय को देशोपशमना कहते हैं।