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आराधनासमुच्चयम् ९२१
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अन्वयार्थ - चित्ते चित्त में । प्रशमादिकं प्रशमादिक भाव हैं उसी को सम्यग्दर्शनचिह्न - सम्यग्दर्शन का चिह्न । विजानीयात् - जानना चाहिए | अपि भी । तत् - वह सम्यग्दर्शन | उपशममिश्रक्षयजभेदात् उपशम, क्षयोपशम और क्षय के भेद से । त्रिविकल्पं तीन प्रकार का । भवेत्
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होता है।
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भावार्थ वित्त में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव ये सम्यग्दर्शन के चिह्न (स्वरूप)
कषायों का दमन करने को उपशम कहते हैं।
पंचाध्यायीकार ने कहा है- पंचेन्द्रियों के विषयों में और लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण तीव्रभाव क्रोधादिकों में स्वरूप से मन का शिथिल होना ही प्रशम भाव कहलाता है।
अपराध करने वालों के प्रति उनके विनाश करने के भाव नहीं होना, अर्थात् भविष्यकाल में उनसे बदला लेने की भावना नहीं होना प्रशम भाव है ।
प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनन्तानुबंधी कषायों का उदयाभाव तथा अप्रत्याख्यानादि कषायों का मन्द उदय कारण है।
सम्यग्दर्शन का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है।
प्रशम भाव का झूठा अहंकार करने वाले मिथ्यादृष्टि के सम्यग्दर्शन का सद्भाव न होने से प्रशमाभास है; वास्तव में प्रशम, भाव नहीं हैं। वह मान, माया वा लोभ के वशीभूत होकर क्रोधादि कषायों का दमन करता है, परन्तु उसके वास्तव में प्रशम भाव ही नहीं है। यह प्रशम भाव रूप शीतल जल काम, क्रोधादि अग्नि से उत्पन्न संसारदाह का शमन करता है।
संसार के दुःखों से भयभीत होना संवेग है। अर्थात् द्रव्य भाव रूप पंच प्रकार के संसार- परिवर्तन से भयभीत होना संवेग है । अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्म में अनुराग होना, उत्साह होना संवेग है ।
धर्म में, धर्म के फल में, धर्मात्माओं में तथा पंच परमेष्ठी के प्रति वास्तविक अनुराग होना, उनको देखकर चित्त का हर्षयुक्त होना संवेग है।
तृषातुर, क्षुधातुर अथवा शारीरिक, मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों पर दया करना, अंतरंग से आर्द्रचित्त होकर उनके दुःख को अपना दुःख समझकर उनके दुःखको दूर करने का प्रयत्न करना अनुकम्पा है। सर्व प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखना अनुकम्पा है।
अनुकम्पा शब्द का अर्थ कृपा, दया समझना चाहिए अर्थात् बैर के त्यागपूर्वक सर्व प्राणियों पर