________________
आराधनासमुच्चयम् १९
और अर्थ दो पदों के समास (वा संयोग) से बना है, जो 'तत्त्वेन अर्थः तत्त्वार्थ:' ऐसा समास करने पर होता है, अर्थात् तत्त्व (स्वस्वभाव) से युक्त पदार्थ तत्त्वार्थ कहलाता है। वा तत्त्वमेवार्थः तत्त्वार्थ:' तत्त्व ही अर्थ है । जो पदार्थ जिस स्वभाव से युक्त है, उसका उसी रूप से होना उसको तत्त्व कहते हैं। जैसे जीव द्रव्य (तत्त्व) है, वह ज्ञाता, द्रष्टा, केवल आत्मा है। इतना श्रद्धान करना तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं है, अपितु जीव है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता (अपने कर्मों के फल का भोक्ता) है, संसारी, सिद्ध (कर्मों का नाश कर स्वयं मोक्षपद को प्राप्त करने वाला) है और ऊर्ध्वगमन करने वाला है इत्यादि नौ अधिकारों के द्वारा आत्मा का श्रद्धान करना जीवतत्त्व का श्रद्धान है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरुलधुत्व रूप भी आत्मा है।
द्रव्यमीमांसा 卐 द्रव्य अथवा तत्त्वबोध की जिज्ञासा जीवन की प्रक्रिया का मूलभूत अंग है। श्रमण संस्कृति में तत्त्वनिरूपण का उद्देश्य केवल जिज्ञासा की पूर्ति ही नहीं, अपितु चारित्रलाभ है। तत्त्वज्ञान का उपयोग साधक द्वारा आत्मविशुद्धि के लिए और प्रतिबन्धक तत्त्वों के उच्छेद के लिए किया जाना अपेक्षित है।
प्रत्यक विचार स्थाद्वाद से परिभाजित हो और प्रत्यक आचार अहिंसा से परिपूर्ण हो तो साधक के मुक्तिलाभ में कुछ विलम्ब नहीं रहता।
द्रव्य शब्द 'द्रु' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है द्रवित होना, प्रवाहित होना । स्व और पर अथवा अन्तरंग और बाह्य कारणों से होने वाली उत्पाद और व्यय रूप पर्यायों को जो प्राप्त हो तथा पर्यायों से जो प्राप्त होता हो, वह द्रव्य है।
एक साथ अनेकान्त की सिद्धि करने के लिए 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' ऐसा कहा जाता है और क्रम से अनेकान्त का ज्ञान कराने के लिए गुणवद्र्व्यं, पर्यायवद्रव्यं' ऐसा कहा जाता है।
द्रव्य के तीन लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं- (१) सद्र्व्यलक्षणं, (२) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् और (३) गुणपर्ययवद्रव्यं ।
ये तीनों परस्परविरोधी व पृथक्-पृथक् लक्षण नहीं हैं। जब एक महासत्ता रूप द्रव्य का भेद नहीं करके, द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वर्णन किया जाता है, तब 'सद्रव्यलक्षणं ऐसा कहा जाता है तथा जब महासत्ता के पर्याय (अवान्तर सत्ता) मय धर्माधर्म आदि को द्रव्य कहा जाता है, तब व्यवहार-नय (पर्यायार्थिक) की अपेक्षा 'गुणपर्ययवद्र्व्यं' ऐसा कहा जाता है।
__ अत: द्रव्य के उपर्युक्त तीन प्रकार के लक्षण मानने में कोई दोष नहीं है। १. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र २९, ३०, ३८ ।