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आराधनासमुच्चयम् २०
उत्पाद, स्थिति और भंग अर्थात् क्षय या विनाश ये तीनों ही पर्यायों के होते हैं, पदार्थ के नहीं और उन पर्यायों का समूह ही द्रव्य कहलाता है। इसलिए ये तीनों मिलकर द्रव्य कहलाते हैं। लोक के समस्त पदार्थ पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होते हैं और समय पाकर नष्ट होते हैं, फिर भी उनका स्वरूप ध्रुव रूप से बना रहता है।
इस प्रकार तत्व के तीन स्वरूप निश्चित होते हैं : उत्पन्न होना, नष्ट होना, ध्रुब बने रहना।
हम जिसे वस्तु कहते हैं उसमें तीन रूप विद्यमान रहते हैं जैसे द्रव्य, गुण और पर्याय | वस्तु का आधारभूत अंशी द्रव्य है, सहभावी अंश गुण है और क्रमभावी अंश पर्याय है। एक उदाहरण द्वारा इन तीनों का स्वरूप समझें - जीव द्रव्य है, उसका सदा विद्यमान रहने वाला ज्ञान चैतन्यगुण है और मनुष्य, पशु, नारकी, देव, कीट, पतंग, रागद्वेष आदि दशायें पर्याय हैं। ये तीनों रूप सदैव परस्पर अनुस्यूत रहते हैं और वस्तु कहलाते हैं।
संक्षेप में, द्रव्य वह है जो गुण और पर्याय से युक्त हो अथवा जो उत्पाद और विनाश से युक्त होकर भी अपने स्वभाव अथवा अपने द्रव्यत्व का त्याग न करने के कारण ध्रुव हो। द्रव्य, गुण और पर्याय में भी पृथक्त्वरूप भिन्नता नहीं है। द्रव्य की अनादिनिधन शक्तियाँ, जो द्रव्य में व्याप्त होकर सदा वर्तमान रहती हैं, 'गुण' कहलाती हैं और उत्पन्न विनष्ट होने वाले विविध परिणाम 'पर्याय' कहलाते हैं। इन दोनों का समूह द्रव्य कहलाता है।
तात्त्विक एवं मौलिक दृष्टि से द्रव्य का विश्लेषण किया जाय तो केवल दो ही द्रव्य उपलब्ध होते हैं - चेतन और जड़। कतिपय दार्शनिक जगत् के मूल में एकमात्र चैतन्य तत्त्व की सत्ता अंगीकार करते हैं, तो दूसरे एकमात्र जड़ तत्त्व की । परन्तु जैन दर्शन न सर्वथा चैतन्यवादी है और न सर्वथा जड़वादी। यह दोनों तत्त्वों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करता है। जड़ तत्त्व में इतनी विविधता और व्यापकता है कि उसे समझने के लिए विश्लेषण या पृथक्करण की आवश्यकता होती है। अतएव उसके पाँच विभाग कर दिये गये हैं। जीव के साथ उन पाँच प्रकार के अजीव द्रव्यों की गणना करने से सब पदार्थों की संख्या छह स्थिर होती है। वे ये हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें 'जीव' के अतिरिक्त शेष पाँचों 'द्रव्य' अजीव हैं। उक्त छह द्रव्यों में से काल के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य 'अस्तिकाय' कहलाते हैं। क्योंकि वे अनेक प्रदेशों के पिण्ड हैं अथवा पिण्ड बन सकते हैं। कालद्रव्य प्रदेश-प्रचय रूप न होने के कारण अस्तिकाय नहीं कहलाता। काल-द्रव्य के दो या अधिक कालाणु मिलकर कभी संघात या पिण्ड नहीं बन सकते। इसलिए यह अस्तिकाय नहीं है, परन्तु यह द्रव्य अवश्य है।
सम्यग्दर्शन के चिह्न सम्यग्दर्शनचिह्न चित्ते प्रशमादिकं विजानीयात् । त्रिविकल्पं तदपि भवेदुपशममिश्रक्षयजभेदात् ।।१०॥