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आराधनासमुच्चयम् १७
अविरोधी हैं अर्थात् जिसका अभिमत प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है, वह वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी कहलाता है वा वह शास्त्र पूर्वापर अविरोधी कहलाता है।
आगम में तीन प्रकार के पदार्थों का कथन पाया जाता है - दृष्ट, अनुमेय और परोक्ष | इनमें से जिस प्रकार के पदार्थ को बताने के लिए आगम में जो वाक्य आया है उसको उसी तरह से प्रमाण करना चाहिए। यदि दृष्ट विषय का प्रकरण हो तो प्रत्यक्ष (इन्द्रियगोचर) प्रमाण से, अनुमेय विषय का प्रकरण हो तो अनुमान प्रमाण से और परोक्ष विषय का प्रकरण हो तो पूर्वापर का अविरोध देखकर आगम से प्रमाणित करना चाहिए।
जो पूर्वापरविरोध रूप दोष से रहित है वही वास्तव में आगम है, आत्मकल्याणकारक है। इससे विपरीत पूर्वापरविरोध सहित जो सिद्धान्त है, वह आगम नहीं है। जिस ग्रन्थ में कथित एक कथन का दूसरे कथन से विरोध आता है, वह आगम नहीं अनागम है।
तत्त्वार्थ का स्वरूप जीवाजीवौ धर्माधर्मों कालाकाशे च षडपि तत्त्वार्थाः ।
नानाधर्माक्रान्ता नेतररूपाः कदाचिदपि ॥९॥ अन्वयार्थ - नानाधर्माक्रान्ता - नाना धर्मों से आक्रान्त। जीवाजीवौ - जीव, अजीव। धर्माधर्मी - धर्म, अधर्म। च - और। कालाकाशे - काल, आकाश । षट् - छह। अपि - भी। तत्त्वार्था; - तत्त्वार्थ कहलाते हैं। नेतररूपा: - इन छह से विपरीत। कदाचिदपि - कोई भी पदार्थ । न - नहीं है।
__ भावार्थ - जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छह तत्त्वार्थ हैं। ये छहों तत्त्व (द्रव्य) अनेक धर्मों से आक्रान्त हैं। अस्ति, नास्ति, नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मों से युक्त होते हैं। अनेक धर्मों से विपरीत एकधर्मात्मक पदार्थ तत्त्व नहीं होता है।
जो पदार्थ जिस स्वरूप में है उसका उसी रूप से होना तत्त्व कहलाता है। तत्त्व शब्द भाव सामान्यवाचक है, क्योंकि तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है अत: उस द्रव्य का भाव तत्त्व कहलाता है। इस ग्रन्थ में जीव, अजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को तत्त्वार्थ कहा है, क्योंकि अपना तत्त्व स्वतत्त्व कहलाता है। स्व-भाव असाधारण धर्म को कहते हैं, अर्थात् वस्तु के असाधारण रूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं। ये छहों द्रव्य स्व स्वरूप को कभी नहीं छोड़ते हैं, स्व स्वरूप में लीन रहते हैं। इसलिए इनको तत्त्व कहते हैं।
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणा गुणपज्जएहि संजुत्ता ॥९॥ नियमसार