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आराधनासमुच्चयम् १६
इस ग्रन्थ में इन्हीं गुणों के आधारवान को आप्त कहा है अर्थात् जो क्षुधादि दोषों का घातक है और केवलज्ञानादि गुणों का आधार है वही आप्त है, इनसे विपरीत अनाप्त है।
आगम का लक्षण
तद्वक्त्रात् पूर्वापरविरोधरूपादिदोषनिर्मुक्तः । स्यादागमस्तु तत्प्रतिपक्षोक्तिरनागमो नाम ॥८ ॥
और ।
अन्वयार्थ - तद्वक्त्रात् - जो जिनेन्द्र के मुख से निकला है। पूर्वापरविरोधरूपादिदोषनिर्मुक्तः पूर्वापर विरोध स्वरूप दोषादि से रहित आगम: आगम । स्यात् - कहलाता है। तु तत्प्रतिपक्षोक्तिः - इससे विपरीत अर्थात् वीतराग द्वारा अकथित और पूर्वापर विरोधादि दोषों से युक्त
शास्त्र | अनागमः
अनागम । नाम कहलाता है।
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भावार्थ- आचार्यदेव ने इस श्लोक में शास्त्र का लक्षण लिखा है। वास्तव में, शास्त्र वही है जो वीतराग, सर्वज्ञ के द्वारा कथित है, जिसमें पूर्वापर विरोध नहीं है अर्थात् जो प्रत्यक्ष एवं अनुमान से अबाधित है।
" जो आप्त के द्वारा कथित है, जो प्रत्यक्ष और अनुमान से अबाधित है अर्थात् जो प्रत्यक्ष ज्ञान से खण्डित नहीं होता तथा जो अनुमान के द्वारा अबाधित है अर्थात् जिसका खण्डन अनुमान के द्वारा भी नहीं होता, जिसमें तत्त्व का उपदेश दिया गया है; जो सर्वजीवों का हित करने वाला है तथा जो कुमार्ग का खण्डन करने वाला है, वही आगम है। "१
जिसके द्वारा अनन्त धर्मों से विशिष्ट जीव अजीव आदि पदार्थ जाने जाते हैं, ऐसी आप्त- आज्ञा आगम है, शासन है।
आप्त का वचन जिसमें कारण है ऐसे अर्थज्ञान को आगम कहते हैं।
वीतराग सर्वज्ञदेव प्रणीत छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थादि का सम्यक् श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, व्रतादिक का अनुष्ठान, अभेद रत्नत्रय के पालन-धारण आदि का जिसमें प्रतिपादन है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का जिसमें कथन है उसको आगम कहते हैं। आगम, सिद्धान्त और प्रवचन ये सर्व एकार्थवाची हैं।
जो सिद्धान्त पूर्वापरविरोध रूप दोषों से रहित है वही आगम कहलाता है।
इष्ट अर्थात् प्रयोजनभूत मोक्षादि तत्त्व किसी के प्रत्यक्ष हैं। प्रमाण से बाधित नहीं होते हैं इसलिए
१. आसोपज्ञमनुलंघ्यमदृष्टेष्टविरोधक्रम् ।
तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनं ।। ९ ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार ।।