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आराधनासमुन्वयम् १४
सुखसंवित्ति या सुखानुभवरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इन्द्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्प रूप है उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। (गाथा ४२ की टीका) शंका - जैन सिद्धान्त में दर्शन को निर्विकल्प और ज्ञान को सविकल्प माना है अतः ज्ञान के सविकल्प और निर्विकल्प ये दो भेद कैसे हो सकते हैं ?
समाधान जैन सिद्धान्त स्याद्वादमय है अतः इसमें ज्ञान को भी कथंचित् सविकल्प और कथंचित् निर्विकल्प माना है - जैसे विषयों में आनन्द रूप जो स्वसंवेदन है वह रागानुभवरूप विकल्पस्वरूप होने से सविकल्प है तथापि शेष अनिच्छित सूक्ष्म विकल्पों का उनमें सद्भाव होने पर भी उन विकल्पों की उसमें मुख्यता न होने से वह निर्विकल्प भी है। उसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभव रूप जो वीतराग स्वसंवेदन है वह आत्मसंवेदन के आकार रूप एक विकल्प के होने से यद्यपि सविकल्प है तथापि बाह्य विषयों के अनिच्छित विकल्पों का उस ज्ञान में सद्भाव होने पर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है। अतः उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं।
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प्रवचनसार में कुन्दकुन्द आचार्य ने केवलज्ञान को भी सविकल्प और निर्विकल्प कहा है ज्ञेयार्थ परिणमन रूप क्रिया की अपेक्षा सविकल्प है तथा मोहनीय कर्मजनित विकल्पों से रहित होने से निर्विकल्प है।
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आप्त का स्वरूप (लक्षण)
क्षुत्तृड्भी क्रुधाग प्रमोह चिन्ता जरारुजामृत्यु खेद स्वेद मदारति विस्मय निद्रा जनोद्वेगाः || ६ ||
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जनोद्वेगा:
अन्वयार्थ - क्षुत्तृड्भी क्रुधाग प्रमोह चिन्ता जरारुजामृत्यु खेद स्वेद मदारति विस्मय निद्रा भूख, प्यास, भय, क्रोध (द्वेष), राग, प्रमोह, चिन्ता, जरा ( बुढ़ापा ), रुज (रोग), मृत्यु, खेद, स्वेद ( पसीना ), मद, अरति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग । दोषाः - दोष हैं। तेषां उन दोषों के । हन्ता नाश करने वाले। केवलबोधादयः - केवलज्ञानादि । गुणाः - गुण । तेषां उन गुणों का जो ! आधारः आधार है । आप्तः • आप्त | स्यात् ~ होता है। तद्विपरीतः - उससे विपरीत। अनाप्तः अनाप्त। स्यात् होता है।
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भावार्थ - जिसमें भूख, प्यास, भय, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद
( पसीना ), मद ( घमण्ड ), अरति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और उद्वेग नहीं है तथा जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि गुणों के आधार हैं, इन गुणों से युक्त हैं वे आप्त कहलाते हैं तथा जो भूख, प्यास आदि दोषों से युक्त हैं तथा केवलज्ञानादि गुणों से रहित हैं, वे अनाप्त कहलाते हैं।
दोषास्तेषां हन्ता केवलबोधादयो गुणास्तेषाम् । आधारः स्यादाप्तस्तद्विपरीतः सदानाप्तः ॥ युग्मं ॥७ ॥
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