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आराधनासमुच्चयम् १३
- आगम के द्वारा कथित तत्त्व का स्वरूप । तत्त्वार्थः - तत्त्वार्थ । स्यात् - कहलाता है।
भावार्थ - आचार्यश्री ने आप्त, आगम और तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी को आप्त कहते हैं।
अनेक प्रकार के प्रमाण और नयों से गहन, आप्त के द्वारा कथित (वचन) शास्त्र आगम कहलाता
"प्रमीयते इति प्रमाणं" जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं उसको प्रमाण कहते हैं अथवा जो हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ होता है उसको प्रमाण कहते हैं वा सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं अथवा ज्ञान को ही प्रमाण कहते हैं। विशेष रूप से आप्त का लक्षण आगे कहेंगे।
प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक प्रमाण को परार्थ प्रमाण कहते हैं अर्थात् जो स्वयं तो जानता है दूसरों को समझा नहीं सकता उसको स्वार्थ प्रमाण कहते हैं। जो वचनों के द्वारा दूसरों को समझा सकते हैं उसको परार्थ प्रमाण कहते हैं।
मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये चार ज्ञान स्वार्थ ही हैं परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ के भेद से दो प्रकार का है। क्योंकि आदान-प्रदान श्रुतज्ञान के द्वारा ही होता है इसलिए श्रुतज्ञान परार्थ है तथा स्व का अनुभव भी जो ज्ञान के द्वारा होता है, इसलिए यह स्वार्थ भी है।
ज्ञान ही प्रमाण है और ज्ञान के पाँच भेद हैं अतः प्रमाण भी पाँच प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ।
सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से ज्ञान दो प्रकार का है। उसमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान सविकल्प ज्ञान हैं और केवलज्ञान निर्विकल्प है। क्योंकि मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान मन सहित होते हैं- इसलिए ये सविकल्प हैं और केवलज्ञान मन रहित होने से निर्विकल्प है।
पंचाध्यायीकार ने लब्धि-आत्मक ज्ञान को निर्विकल्प कहा है और उपयोगात्मक ज्ञान को सविकल्प कहा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि स्वात्मा को ग्रहण करने में निश्चय से मन ही उपयोगी होता है तथापि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञान रूप हो जाता है क्योंकि मन भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली ज्ञान की ही एक पर्याय है और वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतना रूप शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है। वह विषय से विषयान्तर में संक्रमित न होने से निर्विकल्प कहलाता है।
द्रव्यसंग्रह में कहा है कि - जो निश्चय भाव श्रुतज्ञान है वह शुद्धात्मा के अभिमुख होने से
१. सर्वार्थसिद्धि १-६ ।