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आराधनासमुच्चयम् + ११
जो वस्तु आराधना करने योग्य होती है, उसे आराध्य कहते हैं। आराधना करने वाला आराधक या आराधक जन कहलाता है। आराधना करने की विधि आराधना का उपाय कहलाती है, तथा आराधना से प्राप्त होने वाला कार्य आराधना का फल कहलाता है। इन सबका विस्तारपूर्वक कथन स्वयं आचार्य इसी ग्रन्थ में करेंगे अर्थात् इस ग्रन्थ का प्रयोजन है आराध्य, आराधकजन, आराधना का उपाय और आराधना के फल का कथन करना।
आराध्य के भेद एवं चार गुण तत्राराध्यं गुणगुणिभेदाद् द्विविधं गुणाश्च चत्वारः।
सम्यग्दर्शनबोधनचरिततपो नाम समुपेताः॥३॥ अन्वयार्थ - च - और। तत्र - यहाँ। आराध्यं - आराध्यवस्तु । गुणगुणि भेदात् - गुण गुणी के भेद से | द्विविधं - दो प्रकार का है, उसमें । गुणाः - गुण। सम्यग्दर्शन बोधन चरित तपो नाम समुपेता: - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप रूप नाम से युक्त। चत्वारः - चार प्रकार के हैं।
भावार्थ - इस ग्रन्थ में आराध्य वस्तु गुण-गुणी के भेद से दो प्रकार की है अर्थात् कहीं पर गुणों की आराधना की जाती है और कहां पर गुणी की। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के भेद से गुण चार प्रकार के हैं।
सम्यग्दर्शन का लक्षण आप्तागमतत्त्वार्थश्रद्धानं तेषु भवति सम्यक्त्वम् ।
व्यपगतसमस्तदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ॥४॥ अन्वयार्थ - तेषु - उन चार प्रकार के आराध्य गुणों में। आप्तागमतत्त्वार्थश्रद्धानं - आप्त, आगम और तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना । सम्यक्त्वं - सम्यग्दर्शन । भवति - होता है। व्यपगतसमस्तदोष: - नष्ट हो गए हैं सारे दोष जिसके। सकल गुणात्मा - सकल गुणों का समूह। आप्त:- आप्त। भवेत् - होता है।
भावार्थ - सच्चे देव शास्त्र गुरु और जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है।'
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में देव, शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़ता, आठ मद रहित और आठ अंग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है।
१. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । विमूढा-पोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।४ ।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार