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आराधनासमुच्चयम् ०१०
अर्थात् स्वयं यह ग्रन्थ मंगल रूप है। मंगलकर्त्ता रविचन्द्र आचार्य हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ की रचना
की है तथा स्वयं ने इस ग्रन्थ में निबद्ध रूपमंगवर किए है। स्वयं आचार्य वा उनके भव्य शिष्य मंगलकरणीय (मंगल करने योग्य) हैं, क्योंकि इस मंगलाचरण का श्रद्धान, विश्वास करने से भव्य जीवों के अनादिकालीन कर्मबन्ध नष्ट हो जाते हैं।
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इस मंगलाचरण के पठन से एकाग्रता आती है। मन, वचन और काय वश में हो जाते हैं, आत्मा परम पावन बन जाती है अत: मंगल का उपाय ( आत्मा को पवित्र बनाने का साधन ) रविचन्द्राचार्य के द्वारा रचित यह मंगलाचरण है क्योंकि इस मंगलाचरण में कथित, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र के धनी पाँच परमेष्ठियों के ध्यान से ही एकाग्रता आती है। अतः यह मंगलाचरण रत्नत्रय का साधन है या उपाय है।
आचार्यदेव ने इस मंगलाचरण में मंगलाचरण के भेदों का कथन भी किया है। क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सम्पन्न पाँच परमेष्ठी मंगल रूप हैं। इसमें सम्यग्दर्शन भी मंगल स्वरूप है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र भी मंगल स्वरूप हैं, तथा पंच परमेष्ठी मंगल स्वरूप हैं। इस मंगलाचरण में मंगल के जितने भी भेद हैं उन सब का समावेश है। इनसे भिन्न कोई वस्तु मंगलस्वरूप नहीं है।
इस संसार में देव, शास्त्र, गुरु वा पंच परमेष्ठी मंगलरूप हैं क्योंकि इनके नामस्मरण मात्र से सारे सांसारिक दुःख समाप्त हो जाते हैं।
पंच परमेष्ठी ही शरणभूत हैं, परन्तु वास्तव में पंच परम गुरु वे ही हैं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त हैं, पवित्र हैं। इस कथन से जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से रहित हैं वे पंचगुरु नहीं हो सकते । इस प्रकार मंगलाचरण का कथन समाप्त हुआ।
अन्वयार्थ आराधना- सिद्ध्यै आराधना की सिद्धि के लिए। आराध्याराधकजनसोपायाराधनाफलाख्यं आराध्य, आराधक जन, आराधना का उपाय और आराधना का फल । एतत् - यह । पादचतुष्टयं पाद चतुष्टय । समुदितं - कहा है।
भावार्थ - आ समन्तात् राध्यते, साध्यते यया आत्मसिद्धि असौ आराधना ।
राध् धातु और साधू धातु सिद्धि अर्थ में आती है। अतः जिससे आत्मा की सिद्धि-स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति की जाती है उसे आराधना कहते हैं।
आराधना की सिद्धि हेतु घटक
आराध्याराधक- जनसोपायाराधनाफलाख्यं तु । पादचतुष्टयमेतत्समुदितमाराधनासिद्ध्यै ॥ २ ॥
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