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आराधनासमुच्चयम् ९
जिस केवलज्ञान ज्योति में अनन्त गुण पर्याय सहित सर्व पदार्थ वैसे ही प्रतिबिम्बित होते हैं जैसे दर्पण में पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, वह ज्ञानज्योति जयवन्त रहे।
इस प्रकार आत्मा के अनन्त गुणों का आश्रय लेकर जो स्तवन किया जाता है, वह भाव मंगल है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से अलौकिक वा मुख्यमंगल इस तरह छह प्रकार का भी होता है।
मंगल का फल विघ्नों का विनाश है, सो ही कहा है णासदि विग्यं भेददि यहो दुट्टा सुरा ण लंघंति । इट्ठो अत्थो लब्भइ जिणणामग्गहण-मेत्तेण ॥३०॥ सत्थादिमज्झ-अवसाणएसु जिणथोत्त मंगलुच्चारो।
णासइ णिस्सेसाई विग्घाई रविव्व तिमिराई॥ति.प./१/३१॥ जिनेन्द्र भगवान के नामग्रहण मात्र से विघ्न नष्ट हो जाते हैं, पापं नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट देव उल्लंघन नहीं करते हैं और इष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है। शास्त्र के आदि, मध्य और अवसान में जिनेन्द्र भगवान ने मंगल कहा है। जिस प्रकार सूर्य के द्वारा अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मंगलाचरण से विशेष विघ्न नष्ट हो जाते हैं।
मानतुंगाचार्य ने मंगल का फल लिखा है -
"हे प्रभो ! तुम्हारे स्तवन से भव-भव के बँधे हुए पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। जैसे सूर्य के उदय होते ही रात्रिकालीन अंधकार नष्ट हो जाता है। यह तो मंगल का लौकिक फल है। अलौकिक वा मुख्य फल है श्रेयोमार्ग की सिद्धि । सो ही आतपरीक्षा में कहा है -
श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः।
इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादी मुनिपुंगवाः ॥२॥ परमेष्ठी के प्रसाद से श्रेयोमार्ग की सिद्धि होती है इसलिए शास्त्र के प्रारंभ में मुनिराजों ने परमेष्ठी के गुणों के स्मरण रूप मंगलाचरण का कथन किया है।
मंगलाचरण का मुख्य फल है - मोक्ष और गौण फल है अभ्युदय (स्वर्गादि की प्राप्ति)२
इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में आचार्यदेव ने मंगल, मंगलकर्ता, मंगल करने योग्य (मंगलकरणीय), मंगल का उपाय, मंगल के भेद और मंगल के फल का कथन किया है।
१. भक्तामर स्तोत्र -७
२. धवल १/१११