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आराधनासमुच्चयम् ०१५
रत्नकरण्ड श्रावकाचार ( ६ ) में भूख, प्यास आदि १८ दोष कहे हैं। ये सर्व दोष मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं इसलिए रागद्वेष और मोह का नाशक आप्त कहलाता है।
मोहनीय कर्म के अभाव में वीतरागता प्रगट होती है और ज्ञानावरण, दर्शनावरण के अभाव में सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता गुण प्रगट होते हैं।
अथवा, ज्ञानावरण कर्म के अभाव में अनन्त ज्ञान गुण प्रगट होता है। दर्शनावरण के अभाव में अनन्त दर्शन, मोहनीय कर्म के अभाव में अनन्त सुख और अन्तराय के अभाव में अनन्त बल प्रगट होता है। इन अनन्त चतुष्टय रूप गुणों का आधार वा धारक आप्त कहलाता है। इसके विपरीत अनाम है अर्थात् जिसमें ये गुण नहीं हैं, वह आप्त नहीं हो सकता ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है -
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ ॥
क्षुधादि दोषों से रहित सर्वज्ञ हितोपदेशी ही आप्त हो सकता है। ये गुण जिसमें नहीं हैं वह आप्त नहीं हो सकता। क्षुधादि को दोष कहा है, उनके नाश से वीतराग होते हैं ।
परमेष्ठी (परमपद में स्थित ), परं ज्योति ( उत्कृष्ट ज्योति), वीतरागी, विमल ( भावकर्म से रहित), कृती ( कृतकृत्य), सर्वज्ञ (सारे द्रव्य और उनकी त्रैकालिक पर्यायों को वर्तमान में जानने वाला ) आदि, मध्य और अन्त से रहित और समस्त जीवों का हित करने वाला आदि, अनन्त गुणों का धारक आप्त होता है।
यद्यपि अर्हन्त भगवान अनन्त गुणों के धारक हैं, परन्तु अनन्त गुणों का उल्लेख वचनों के द्वारा होना संभव नहीं है। अतः वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी अथवा अनन्त चतुष्टय रूप गुणों के धारक को आप्त कहते हैं, ऐसा आचार्यदेव ने कथन किया है।
आगम में आप्त के ४६ गुण कहे हैं। ३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य और ४ अनन्त चतुष्टय। इनमें चार अनन्त चतुष्टय ही आप्त के वास्तविक गुण हैं। शेष ४२ बाह्य चिह्न हैं, गुण नहीं हैं। गुण-गुणी से पृथक् नहीं होते हैं । अतः जो शरीर आश्रित तथा देवकृत अतिशय हैं और ८ प्रातिहार्य हैं, वे बाह्य दृष्टिगोचर होने वाले चिह्न हैं, आत्मीय गुण नहीं। अतः समन्तभद्राचार्य ने आस के तीन गुण कहे हैं - सर्वज्ञता, हितोपदेशिता और वीतरागता । आप्त का यह लक्षण अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभव दोषों से रहित है।
आप्त परीक्षा में इन्हीं तीन गुणों की आप्त में सिद्धि की गई है। जिनमें ये गुण नहीं हैं, जो इन गुणों का आधार नहीं है, वह आप्त नहीं हो सकता। वह अनाप्त है।