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आराधनासमुच्चयम् १२
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ॥५॥ आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं - जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथित छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है।'
मिथ्यादर्शन से उत्पन्न विपरीताभिनिवेश रहित सात तत्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। सूत्र पाहुड़ में जीवादि तत्त्वों को हेय एवं उपादेय रूप से जानना वा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन का लक्षण अनेक प्रकार से कहा गया प्रतीत होता है, परन्तु शब्दाधिकरण पृथक्-पृथक् होते हुए भी अर्थाधिकरण सबका एक ही है। उसमें कोई भेद नहीं है।
इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्यदेव ने 'आप्तागमतत्त्वार्थश्रद्धानंसम्यक्त्वं' कहा है। उसमें सम्यग्दर्शन वाचक सारे शब्दाधिकरणों का समावेश अर्थात् आप्तागम श्रद्धान से देव, शास्त्र एवं गुरु का श्रद्धान और तत्त्व शब्द से सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय का ग्रहण किया गया है।
जिसके सारे क्षुधादि एवं रागादि दोष नष्ट हो गये हैं तथा जो अनन्त गुणों से युक्त है उसको आप्त । कहते हैं।
"निःशेष दोषों से जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम गुणों से जो संयुक्त है, वह परमात्मा __ कहलाता है, उससे विपरीत है, वह परमात्मा नहीं है।"३
नियम से वीतराग, सर्वज्ञ तथा आगम का ईश (हितोपदेशी) ही आप्त होता है। जिसमें ये गुण नहीं हैं वह आप्त नहीं हो सकता।
जिसके रागद्वेष, मोह का सर्वथा क्षय हो गया है, उसको आप्त कहते हैं। स्वयं आचार्य ने छठे और सातवें श्लोक में आप्त के स्वरूप का कथन किया है।
आगम और तन्वार्थ का लक्षण आप्तोक्ता वागागमसंज्ञा नानाप्रमाणनयगहना।
स्यादागमप्ररूपितरूपयुतार्था हि तत्त्वार्थाः ।।५॥ अन्वयार्थ - नानाप्रमाणनयगहना - नाना प्रमाणों और नयों से गहन । आप्तोक्ता वाक् - आप्त के द्वारा कथित वचन। आगमसंज्ञा - आगम कहलाता है। हि - निश्चय से। आगमप्ररूपितरूपयुतार्था
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१. नियमसार-गाथा ५
२. दर्शनपाहुड़
३. नियमसार-५
४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार-५ ।