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पं. श्री हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री एवं उन की साहित्य सपर्या
- अरुण कुमार जैन जैन दर्शन व्याकरणाचार्य
वीसवी शताब्दी के जिन मनीषियों ने समाज की उपेक्षा के भारी संत्रासों को झेलकर तथा नाना आर्थिक समस्याओं से जूझकर भी अपनी अनर्ध्य साधना से नाश होने के कगार पर खड़े जिन - साहित्य - प्रासाद के संरक्षण एवम् पुनरुद्धार में अपना समग्र जीवन समर्पित कर दिया, जिन और संस्कृति के आधार स्तम्भ आचार्य प्रणीत वाड्.मय को जन-जन तक पहुँचाने में महनीय अवदान देकर समाज और देश को सत्सरणि का संदर्शन कराया, नाना शास्त्राद्यवीक्षण से जैन वाड्.मय को युग सापेक्ष तुलनात्मक अध्ययन कर वाग्देवी के मन्दिर को समलंकृत कर विश्व वाड्.मय में जैन मनीषा के उत्कर्ष को सिद्ध किया, आजीविकोपयोगी समुचित संसाधनों के अभाव में भी जो साहित्य - सपर्या से कभी विरत नहीं हुए, ऐसे महान् श्रुत- समाराधकों की गणनाप्रसंग में अग्रणी विद्वान् हैं- सिद्धान्ताचार्य पं. श्री हीरालाल शास्त्री |
ठिंगनी कृश देह परन्तु अन्तरंग में दृढ़ता भरी संकल्प शक्ति, घुटनों तक धोती, बिना प्रेस का कुर्ता, यदा-कदा दर्शनीय सिर पर टोपी बाहर से कड़क, अन्दर से नरम, बिल्कुल महात्म- सुलभ नारि केलसमाकार, अन्दर को धुंसी आँखों में शास्त्रों की गहनावलोकनी दृष्टि, कृत्रिमता से रहित सीधी सपाट वाणी, यही हैं सिद्धान्ताचार्य पं. श्री हीरालाल जी शास्त्री ।
लघु और कृशकाय के इस महामनीषी ने घोर पारिवारिक प्रतिकूलताओं के मध्य अपने अप्रतिहत पुरुषार्थ के बल पर जिस विशाल वाड्.मय की रचना की, उसे ये स्वयं नहीं उठा सकते। पं. श्री शास्त्री जी आगम शास्त्रों के तलस्पर्शी अध्येता, कुशल संपादक एवम् अनुवादक थे।