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गहना कर्मणो गतिः २६ इसलिए बन्धुओ, मैं पुनः आपको यही स्मरण दिला रहा हूँ कि हमें प्रज्ञा की प्राप्ति के फलस्वरूप ज्ञान हासिल कर लेने पर तनिक भी मन में गर्व का अनुभव नहीं करना है और प्रज्ञा के अर्थात् बुद्धि के अभाव में रंचमात्र भी खेदखिन्न नहीं होता है । हमें केवल यही विचार करना है कि-'मेरे पापकर्मों के उदय से ही मुझे बुद्धि की प्राप्ति नहीं हुई और इसीलिए मैं जिज्ञासु व्यक्तियों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर अथवा वाद-विवाद करके आध्यात्मिक विषयों को स्पष्ट करने में असमर्थ हूँ।'
इस प्रकार अगर मन में समभाव रहेगा और चित्त में शांति बनी रहेगी तो निश्चय ही हमारे पूर्व कर्मों का क्षय हो सकेगा और नए कर्मों का बन्धन नहीं होगा । प्रज्ञा की प्राप्ति पर गर्व और उसके अभाव में हीनता का अनुभव होना, इन दोनों प्रकार के भावों को हमें जीतना है तथा दोनों स्थितियों में मन को सम्हालना है । ऐसा करने पर ही हमारी आत्मा इहलोक और परलोक में सुखी बन सकेगी।
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