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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
देखा कि तपस्या छोड़ देने के कारण और पौष्टिक पदार्थों के सेवन से उनका शरीर खूब पुष्ट हो गया है और वे बड़े आनन्द से मसनद के सहारे लेटे हुए सुन्दर ललनाओं के नृत्य-संगीत का आस्वादन कर रहे हैं। उनके चित्त में कोई विक्षोभ नहीं है तथा वे साधना या तपस्या करते हैं, इसका भी कोई लक्षण नहीं है । साथ ही संत ने राजा से वह स्थान छोड़कर पुनः अपने निर्जन वन में चले जाने का विचार भी प्रकट नहीं किया।
यह सब देखकर राजा ने चुपके से मन्त्री से कहा
"अमात्य ! संत की तो कायापलट हो गई। लगता है कि ये अपनी सम्पूर्ण साधना एवं त्याग-तपस्या को छोड़ बैठे है । ऐसा क्यों हुआ ?' ___ मन्त्री ने सविनय उत्तर दिया-"महाराज ! यह सब संगति का परिणाम है। मनोहर भवन, भोग-विलास के साधन, सुस्वादु व्यंजन एवं इन सुन्दर नर्तकियों एवं दास-दासियों का संग ही इन्हें निवृत्ति-मार्ग से हटाकर प्रवृत्तिमार्ग पर ले आया है।"
वस्तुतः संगति का असर हुए बिना नहीं रहता और महान् त्यागी तथा तपस्वी भी अगर दुर्जनों की संगति में रहने लग जायँ तो बिरले महापुरुषों को छोड़कर अधिकांश तो प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते । इसीलिए कहा जाता है
कामिनां कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान् । देहान्तरे ततः क्रोधी, लोभी, मोही च जायते ॥ कामक्रोधादिसंसर्गात् अशुद्ध जायते मनः ।
अशुद्ध मनसि तच्च ब्रह्मज्ञानं विनश्यति ॥ कहते हैं कि-उत्तम पुरुष भी कामी व्यक्तियों और स्त्रियों की संगति से जन्मान्तर में क्रोधी, लोभी और मोही हो जाता है। साथ ही काम, क्रोध एवं मोह आदि विकारों से मन अशुद्ध होता है और अशुद्ध मन हो जाने पर साधारण हानि की तो बात ही क्या है, बड़ी साधना से प्राप्त हुआ ब्रह्मज्ञान भी सर्वथा नष्ट हो जाता है।
इसीलिए विवेकी पुरुष श्रद्धाहीन, नास्तिक या विकारग्रस्त व्यक्तियों की संगति का त्याग करते हैं तथा ज्ञानी, वैरागी एवं तपस्वियों की संगति में रह कर आत्मोन्नति के मार्ग पर बढ़ने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने मन को प्रेरणा देते हुए सदा यही प्रतिबोध देते हैं
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