________________
ऊँघो मत पंथीजन !
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल हमने धर्म का महत्त्व समझते हुए ‘धर्म-भावना' किस प्रकार भाई जाय, इस पर विचार किया था । 'धर्म-भावना' आत्म-शुद्धि करने वाली बारह भावनाओं में से ग्यारहवीं भावना और संवर के सत्तावन भेदों में इकतालीसवाँ भेद है।
आज हमें 'बोधि-दुर्लभ-भावना' को लेना है जो बारहवीं भावना है और संवर का बयालीसवाँ भेद है। यह भावना होना अर्थात् बोध का प्राप्त होना बड़ा कठिन है । क्योंकि इस जगत में मानव को लुब्ध और भ्रमित करने वाले असंख्य पदार्थ हैं, जिनके आकर्षण से बचना बड़ा मुश्किल है। विरले ही नररत्न होते हैं जो अपने मन और इन्द्रियों को सांसारिक वस्तुओं के आकर्षण से बचाते हैं तथा बोध प्राप्त करके उन्हें आत्म-कल्याण की क्रियाओं में लगाते हैं।
पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने अपने 'बोधि-दुर्लभ-भावना' पर लिखे हुए सुन्दर पद्य में कहा है :
जेते जगवासी कर्म फांसी-सांसी रासी गही,
पुद्गल जो चाहे सोही माने सूख सही है। मरणो न चाहे सब जीवणो उमाहे भाई !
जैसी निज आतमा है तैसी पर मांही है। करके विचार षट्काय प्रतिपाल सदा,
सुख होय तोये सुख 'कुख' चाह नांहीं है । मरुदेवी माता भाई, भाई धर्मरुचि ऋषि,
कहत त्रिलोक भावे सोही धन माही है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org