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क्षमा वीरस्य भूषणम्
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भगवान से कहा है-"प्रभो ! आपने धर्म का उपदेश देते हुए उपशम का उपदेश दिया और उपशम का उपदेश देते हुए विवेक का उपदेश दिया। अर्थात्-धर्म का सार उपशम या समभाव है भौर समभाव का सार विवेक है।
गाथा से स्पष्ट है कि क्षमा धर्म है और उसका पालन तभी समुचित रूप से हो सकता है, जबकि उपशम या समभाव सतत बना रहे । इतिहास उठाकर देखने पर पता चलता है कि पूर्व में महामुनि अपनी खाल खिचवा लेते थे, कोल्हू में पिल जाया करते थे, मस्तक पर अंगारे रखवा लेते थे, स्वयं भगवान महावीर ने कानों में कीले ठुकवाए थे। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उन्होंने लोगों से ऐसा करने के लिए कहा था । यह तो उनसे शत्रुता रखने के कारण लोगों ने किया था। किन्तु उन भव्य आत्माओं ने बिना तनिक भी दुःख, विरोध या क्रोध किये सब कष्ट सहन कर लिये थे और उन अज्ञानी प्राणियों को मन ही मन क्षमा कर दिया था । पर ऐसी क्षमा उन्होंने किस प्रकार हासिल की ? उपशम या समभाव के होने से । सुख और दुःख में हर्ष या शोक का अनुभव न करने वाली महान् आत्माएँ भी इस प्रकार का समाधि-भाव रख सकती हैं तथा मरणांतक कष्ट पहुँचाने वाले व्यक्तियों को भी सहज ही क्षमा कर सकती है । ___ आज तो व्यक्ति के कान में एक कटु शब्द पड़ते ही हृदय में बैठा हुआ क्रोध रूपी विषधर फन उठाकर डसने को दौड़ पड़ता है। ऐसे विषधर के रहते हुए भला समभाव कहाँ टिक पाएगा? और समभाव के अभाव में क्षमा-धर्म की आराधना भी कैसे होगी ? इसलिये बंधुओ, अगर क्षमा-धर्म की आराधना करनी है तो सर्वप्रथम मानस में विवेक को जागृत रखना चाहिए तथा उसकी सहायता से समाधिभाव को स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।
अब गाथा का तीसरा चरण आता है। इसमें कहा गया है-'नाणं सुजाणं चरणस्स सोहा ।' अर्थात्-सुजान पुरुष के चरण यानी चारित्र की शोभा ज्ञान से होती है । ज्ञान के अभाव में चारित्र का पालन सम्यक्रूप से कभी नहीं हो सकता । जो अज्ञानी व्यक्ति यह नहीं जानता कि कौनसी क्रिया आत्मा के लिए हितकर है और कौनसी अहितकर, वह भला अपने आचरण को शुद्ध कैसे बनायेगा ? कहा भी है
__ नाणंमि असंतंमि चरित्तं वि न विज्जए। अर्थात्-जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ चारित्र भी नहीं रहता।
वस्तुतः अज्ञानी पुरुष धर्म और अधर्म में अन्तर न जान सकने के कारण अपने आचरण को धर्ममय नहीं बना सकता और अधर्ममय आचरण के द्वारा कर्मों की निर्जरा करके संसार-मुक्त नहीं हो सकता।
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