Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 391
________________ २८ ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! कल मैंने दस यति-धर्मों में से पहले क्षमा-धर्म पर आपको कुछ बताया था। ये धर्म संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों में आते हैं और क्षमा तयालीसवाँ भेद है। जो भव्य प्राणी क्षमारूपी कल्पवृक्ष की छाया में बैठता है वह इच्छानुसार फल प्राप्त करके सुखी बनता है, पर जो क्रोधरूपी विषवृक्ष के नीचे जा पहुँचता है वह उसके विष से प्रभावित होकर जन्म-जन्म तक कष्ट पाता रहता है। इसीलिए वीतराग प्रभु ने क्षमारूपी कल्पवृक्ष के समीप जाने की प्रेरणा दी है और आज्ञा दी है कि मुमुक्ष को कभी भी और किसी भी अवस्था में उसका आश्रय नहीं छोड़ना चाहिए । क्षमा धर्म इतना उत्कृष्ट है कि देवताओं को भी इसके धारक के चरणों पर झुकना पड़ता है। इतिहास बताता है कि अनेक सन्तों और श्रावकों को धर्म से विचलित करने के लिए देवता भी आकर कोशिश करते थे तथा नाना कष्टों की सृष्टि करके उन्हें डिगाने का प्रयत्न करते थे। किन्तु उन महान् आत्माओं के पास 'क्षमा' एक ऐसा शस्त्र होता था, जिसकी मार से घबराकर वे उनके चरणों पर गिर पड़ते थे और पश्चात्ताप करते थे। किसी ने कहा भी है क्षमा खड्गं करेयस्य, दुर्जनः किं करिष्यति।" अर्थात्-क्षमारूपी खड्ग जिस व्यक्ति के हाथ में होती है, शत्रु उसका क्या बिगाड़ सकते हैं ? वस्तुतः क्षमा के आगे असंख्य शत्रुओं को भी नतमस्तक होना पड़ता है। यही कारण है कि साधक जब आत्म-साधना के लिए प्रवृत्त होता है तो मार्ग में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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