Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 397
________________ ३८४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग पद्य अत्यन्त सुन्दर और बड़ा मार्मिक है। इसमें कहा है-"अरे जीव रूपी जौहरी ! तू बाहर कहाँ काँच के टुकड़ों को खोजता फिरता है, तेरे अन्दर ही तो जिनधर्म रूपी मंजूषा दुर्लभ रत्नों से भरी हुई है इसे देख, परख और इनका लाभ उठा ।" धर्म-मंजूषा में कौन-कौन से रत्न किस तरह माने जा सकते हैं, यह इस प्रकार बताया है—संयम रूपी अमूल्य हीरा है, नियम नील रत्न और विद्रुम रत्न व्रत हैं। वैराग्य-रूपी गौमेद है तथा ज्ञान-रूपी माणिक है। जप-तप सच्चे मोती हैं, ध्यान पन्ना है और नय लसनिया रत्न हैं । इसी प्रकार दोनों में से सर्वोत्तम अभयदान पुखराज है। कविश्री ने आत्म-गुणों की यथार्थ परीक्षा करके उन्हें दुर्लभ और अमूल्य रत्न बताया है। साथ ही जीवात्मा से भी कहा है- "अरे जीव जौहरी ! तू मनुष्य है पशु नहीं, पशु तो कभी रत्नों की पहचान नहीं कर सकते, किन्तु तू तो इनकी परख कर सकता है ? फिर क्यों नहीं अपने अन्दर धर्म रूपी मंजूषा में रहे हुए संयम, नियम, व्रत, विराग, जप-तप, ध्यान, नय एवं दानादि रूप इन दुर्लभ रत्नों को उपयोग में लाकर लाभ उठाता है ? पशु के समान अपने आपको अज्ञानी रखकर तू बाहर ही बाहर दृष्टि डालता है और क्षणिक संतोष प्रदान करने वाले नकली साधनों को इकट्ठा करता है। पर भली-भाँति समझ ले कि ये सब साधन केवल काँच के टुकड़े हैं, जिनकी कीमत तुझे कुछ भी नहीं मिलेगी। पर विशिष्ट विवेक एवं असाधारण बुद्धि को काम में लाकर अगर अपने अन्दर ही रहे हुए, इन सब अनमोल गुणरूपी रत्नों को तू पहचान ले तो इनके द्वारा मोक्ष-मार्ग की सम्पूर्ण यात्रा का खर्च सहज ही निकाल सकता है।" मनुष्य पशु नहीं है वस्तुतः जौहरी केवल मानव ही हो सकता है, अन्य कोई प्राणी नहीं । किन्तु जौहरी होकर भी अगर वह अपना कार्य यानी रत्नों की परख नहीं करता है तो उसका जौहरी कहलाना व्यर्थ है। भले ही मनुष्य कितना भी अज्ञानी और मूर्ख क्यों न हो, वह पशु नहीं है, इसलिए जहाँ पशु को जीवन भर प्रयत्न करके भी ज्ञानी नहीं बनाया जा सकता और आत्म-गुणों की परख करने वाले जौहरी के रूप में नहीं लाया जा सकता, वहाँ मानव प्रयत्न करने पर निश्चय ही ज्ञानी बन सकता है और आत्म-गुण रूपी रत्नों की सच्ची परख करने वाला जौहरी हो सकता है। पर इसके लिए मनुष्य में लगन, जिज्ञासा एवं तीव्र उत्कंठा चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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