Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 414
________________ पकवान के पश्चात् पान ४०१ सद्ग्रन्थों का पारायण करता है तथा हितकारी भाषा बोलता है और जो जगत के भोगों की असारता को समझकर अपने सम्यक्ज्ञान द्वारा इसके प्रति विरक्ति का अनुभव करता है, साथ ही शील, संतोष, क्षमा, करुणा, तप, त्याग, धैर्य आदि आत्मोत्थान के गुणों को अपनाकर प्रमाद का त्याग करते हुए धर्म को धारण कर लेता है; ऐसे प्राणी का शिवपुर जाते समय कोई भी पल्ला नहीं पकड़ सकता, यानी कोई भी उसे रोक नहीं सकता। सौजन्यता को आत्मसात् करने वाले पुरुष इसी प्रकार मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर होते रहते हैं और अन्त में मोक्ष हासिल करते हैं । सौजन्यता केवल वाणी से प्रकट नहीं होती, अपितु आचरण से जानी जाती है। कहा भी है__वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगा होति । -भगवती आराधना, ३६६ अर्थात् -श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं । नवतत्त्व रूपी कत्था-चूना पान के अन्दर अगर कत्था और चूना न हो तो पान, पान नहीं कहलाता और उसे खाने पर मुंह लाल नहीं होता। कत्थे और चूने से ही बीड़ा रंगदार बनता है। हमारे धर्म-रूपी पान में भी कत्था-चूना डाला जाता है पर वह साधारण नहीं, अपितु नौ तत्त्वों का बना होता है । जीव, अजीव, पाप, पुण्य, आस्रव, बंध, संवर निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व कहलाते हैं। जो साधक इन तत्त्वों को समझ लेते हैं, वे अपनी भावनाओं को विशुद्ध बनाकर संसार में रहते हुए भी संसार से अलिप्त रहते हैं । आत्म-कल्याणकारी भावनाओं का महत्त्व बताते हुए एक पद्य में कहा है जग है अनित्य नहीं शरण संसार मांहीं, भ्रमत अकेलो जीव जड़ दोउ भिन्न है। परम अशुचि लखी देह तजी आस्रव को, संवर निर्जरा ही ते होय भव छिन्न है। चित्त में विचारी लोकाकार बोध बीजसार, सम्यक धरम उर धारो निशदिन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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