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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
श्रंगार हेतु खाते बीड़ा, अब तक जीव न तृप्त हुआ। गुरु रत्न कृपा आनन्द कहे, सब धर्मवीर खाकर तरते ।।
कवि का कथन है कि मुख को सुवासित करने के लिए या लाल हो जाने के कारण वह सुन्दर दिखाई दे, इस प्रकार श्रंगार की दृष्टि से जीव ने असंख्य द्रव्य-पान खा डाले हैं, किन्तु आज तक वह तृप्त नहीं हो पाया है । नित्य पान खाया जाता है पर अब तक भी उससे सन्तोष का अनुभव जीव नहीं कर सका है।
इसलिए अच्छा यही है कि अब जिनधर्म-रूपी पान का बीड़ा खाया जाय । अगर अच्छी भावना से इसे एक बार भी गृहण कर लिया तो फिर कभी भी अतृप्ति का अनुभव नहीं होगा। जिन महामानवों ने अभी बताई हुई समस्त चीजों सहित धर्मरूपी पान के बीड़े खाये हैं, वे सब इस संसार से मुक्त हो गये हैं, पर ऐसे धर्मवीर बिरले ही होते हैं।
बन्धुओ ! मैंने यथाशक्य जिनेश्वर भगवान के वचन रूपी पकवान आपके समक्ष रखे हैं और आपने उन्हें ग्रहण भी किया है । आशा है उनके पश्चात् यह धर्मरूपी बीड़ा भी आप लेंगे और इसे पसन्द करते हुए अपने जीवन को सरस, उन्नत एवं निर्दोष बनाकर इहलोक और परलोक में सुखी बनेंगे । ओम् ........ शान्ति... ।
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