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पकवान के पश्चात् पान
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क्रांति करके एक अल्लाह यानी एक ही भगवान को मानने के लिए जनता को प्रेरित किया ।
उनकी प्रेरणा से असंख्य व्यक्तियों ने एक ही अल्लाह को मानना प्रारम्भ कर दिया, किन्तु कुछ इने-गिने व्यक्तियों ने उनकी बात को नहीं माना । इस पर मोहम्मद साहब के अनुयायियों ने उनसे कहा
"आप अल्लाह से प्रार्थना कीजिए कि वह इन नाना देवी-देवताओं को मानने वाले मुशरिकों को शाप देकर बर्बाद कर दे !”
हजरत मोहम्मद ने उत्तर दिया – “भाइयो ! मैं संसार में दया का पैगाम देने आया हूँ, शाप देने के लिए नहीं ।"
लोग मोहम्मद साहब की यह बात सुनकर बड़े लज्जित हुए और चुपचाप वहाँ से चल दिये ।
कहने का अभिप्राय यही है कि दया को प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक ने धर्म का मूल माना है और इसका महत्त्व सम्पूर्ण धर्मक्रियाओं से अधिक बताया है । धर्मात्मा पुरुष तो अन्य मनुष्यों पर भी क्या, पशु-पक्षियों पर भी अपार दया रखते हैं और कभी-कभी तो उनकी रक्षा के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर देते हैं ।
राजा मेघरथ ने एक कबूतर को बाज के पंजे से छुड़ाने के लिए अपने शरीर का माँस काट-काटकर तराजू पर तौल दिया था और मोरध्वज ने सिंह की खुराक जुटाने के लिए अपने प्राणों से प्यारे पुत्र का मोह छोड़ा था ।
तो हमारे मूल विषय के अनुसार जीवदया धर्मरूपी पान में ऐसी इलायची का काम करती है, जिसे खाने वाला तो तृप्ति का अनुभव करता ही है, साथ ही उसकी खुशबू से अन्य अनेक प्राणी भी निर्भयता का अनुभव करके चैन की साँस लेते हैं ।
क्षमारूपी खैरसार
अब धर्म-रूपी पान में डलने वाली दूसरी चीज सामने आती है । वह हैक्षमारूपी खैरसार । दयारूपी इलायची के साथ क्षमा रूपी खैरसार का मेल खूब बैठता है । दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं । जहाँ दया होगी वहाँ क्षमा भी रहेगी, और जहाँ क्षमा होगी दया निश्चित रूप से आ जाएगी ।
इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है
" तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खु धम्मं समायरे ।" अर्थात् - क्षमा को परम धर्म समझकर उसका आचरण करो ।
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