Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 406
________________ पकवान के पश्चात् पान ३६३ सद्देसु अ रूवेसु अ गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ एसा खलु इंदिअप्पणिही ॥ गाथा में बताया है-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वष करता है, उसी का इन्द्रिय-निग्रह प्रशस्त बनता है। ___ तो बंधुओ, स्पष्ट है कि प्रशस्त इन्द्रिय-निग्रह वाला और भगवान के वचनों में दृढ़ आस्था रखने वाला व्यक्ति ही जिनधर्म रूपी अनेक उत्तम वस्तुओं से युक्त पान का बीड़ा ग्रहण कर सकता है। ___आपके मन में विचार आयेगा कि उत्तम वस्तुओं से यहाँ क्या तात्पर्य है ? मैं यही आगे बताने जा रहा हूँ। आप लोग जो साधारण पाने खाते हैं, उसमें कत्था, चूना, लौंग, इलायची एवं खैरसार आदि मुखशुद्धि करने वाली अनेक चीजें डालते हैं। इसी प्रकार धर्मरूपी पान में भी कई वस्तुएँ होती हैं, जिन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है कि धर्मरूपी पान में सबसे पहली चीज है जीव दयारूपी इलायची। दयारूपी इलायची - इलायची में खुशबू होती है और वह खुशबू आपके मन-मस्तिष्क को भी तरोताजा कर देती है। बिना इलायची के पान का जायका अत्यल्प हो जाता है। दूसरे शब्दों में, बिना इलायची का पान आपको पान सा नहीं लगता और वैसा पान आप पसन्द भी नहीं करते । इसलिए धर्मरूपी पान में भी इलायची बड़ी उत्तम कोटि की डाली जाती है जिसे हम जीवदया कहते हैं। जीवदयारूपी इलायची जो व्यक्ति धर्म रूपी पान में डालता है, उसकी खुशबू व्यक्ति के मन को नहीं वरन् सम्पूर्ण जीवन को ही सुवासित कर देती है । और तो और, इस इलायची की सुगन्ध संसार के अन्य प्राणियों तक पहुँचती है तथा उन्हें सन्तुष्ट एवं सुखी बनाती है। आप सोचेंगे यह कैसे ? पान तो एक व्यक्ति खाएगा और उसके आनन्द का अनुभव अन्य प्राणी कैसे कर लेंगे । पर यही तो इस पान की विशेषता है । आपका साधारण पान और उसमें पड़ी हुई इलायची, केवल आपको ही सन्तुष्ट करती है, किन्तु धर्मरूपी पान में दयारूपी इलायची अन्य प्राणियों को भी सन्तोष पहुँचाती है। इसका कारण यही है जिन साधु-पुरुषों का मन और मस्तिष्क दया की सुवास से परिपूर्ण रहता है वे अन्य प्राणियों को भी आत्मवत् समझते हैं और मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों योगों में से किसी के द्वारा भी दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचाते । वे न किसी अन्य प्राणी के मन को कटु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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