Book Title: Anand Pravachan Part 07
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 405
________________ ३६२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग कोई शब्द ऐसा निकला हो, जिसके कारण किसी का मन दुःखा हो तो उसके लिए ही हमारी क्षमा-याचना आप लोगों से है। बन्धुओ ! वीतराग की वाणी भी आपके समक्ष भोजन के रूप में है और संवरतत्त्व के सत्तावन भेद उसमें अलग-अलग पकवान के समान हैं । इस चातुर्मास में मैंने आपके समक्ष ये पकवान रखने का ही प्रयत्न किया है। पकवान बहुत हैं और समय सीमित । इसलिए मैं सभी को आपके सामने नहीं ला सका, किन्तु जितने भी बन पड़े उन्हें संक्षिप्त रूप में यथाबुद्धि प्रस्तुत कर चुका हूँ। किन्तु मैं समझता हूँ कि पकवान सरस होने के कारण कम खाया जा सकता है और थोड़ा खाने पर भी भूख जल्दी नहीं लगती। इसलिए आपको जितने मिष्टान्न मिल पाये हैं ये पेट की नहीं वरन् मन की खुराक हैं अतः काफी दिन तक आपको तप्त किये रहेंगे । आज तो मैं आपको पान-बीड़ा प्रदान कर रहा हूँ। भोजन के पश्चात् मुंह साफ करने के लिए आप पान खाते हैं न ? इसी प्रकार भगवान द्वारा प्रदत्त विविध पकवान आपको खिलाकर अब अन्त में पान भी खिलाये देता हूँ। __ अब देखिये यह पान कैसा है और आप में से कौन-कौन इसे सच्चे हृदय से ग्रहण करते हैं ? है सद्धर्म रूपी पान-बीड़ा, कोई धर्मवीर सेवन करते । जीव दया है इलायची, क्षमारूप खैरसार यहां । सत्यवाणी रूप लवंग है, कोई धर्मवीर सेवन करते ॥ सौजन्यरूप सुपारी जहाँ, नवतत्त्व रूप कत्था चूना । रंगदार बना इससे बीड़ा, कोई धर्मवीर सेवन करते ॥ कवि ने कहा है-जिनधर्म रूपी पान का यह बीड़ा अत्यन्त मधुर, सुवासित एवं स्वादिष्ट है तथा शरीर, मन और आत्मा तक को तृप्त करने वाला है । पर इस दुर्लभ पान का सेवन बिरले धर्मवीर ही करते हैं। जिनके अन्तर्मानस में भगवान की वाणी के प्रति श्रद्धा, विश्वास या भक्ति नहीं है वे इसके सेवन की तो बात ही क्या है, दर्शन भी नहीं कर पाते; क्योंकि यह अमूल्य पान दो. चार पैसे में खरीदा जाने वाला नहीं है, इसे प्राप्त करने के लिए बड़ा त्याग करना पड़ता है और मन एवं इन्द्रियों की सारी शक्ति लगा देनी होती है । अर्थात् उन पर पूर्ण नियन्त्रण रखना पड़ता है । ऐसा तभी हो सकता है जबकि साधक मन और इन्द्रियों को उनकी इच्छानुसार नहीं, वरन् अपनी इच्छानुसार शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त करने की दृढ़ता प्राप्त कर ले। हमारे शास्त्र कहते भी हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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