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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
वचनों से दुखाते हैं और न अपने शरीर के द्वारा आघात पहुँचाकर किसी के शरीर को ही पीड़ा पहुंचाते हैं । यहाँ तक कि औरों के द्वारा कष्ट पाकर भी वे प्रत्युत्तर में उन्हें दुःख नहीं देते वरन् उन पर दया करके उन्हें क्षमा प्रदान करते हैं । ऐसे व्यक्ति दया-भाव से कारण ही औरों को दुःख देने में पाप समझते हैं। एक फारसी भाषा के कवि ने भी कहा है
मबाश दर पै आजार हरचि खाही कुन ।
की दर हकीकते मा गैर अर्जी गुनाहे नेस्त ।। अर्थात्-हे मनुष्य ! तू और जो चाहे कर, किन्तु किसी को दुःख न दे । क्योंकि हमारे धर्म में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई पाप नहीं है ।
वस्तुतः निर्दयता एवं क्रूरता महापाप हैं और प्रत्येक धर्म या मत इन्हें त्यागने की प्रेरणा देते हैं। कोई भी धर्म दयाहीनता को धर्म नहीं कहता अतः जो व्यक्ति दया और अहिंसा को जैनधर्म के ही सिद्धान्त मानते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं दया और करुणा किसी एक धर्म का ही सिद्धान्त नहीं है, अपितु मानव मात्र के लिए गृहणीय है अतः प्रत्येक धर्म का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।
दया के अभाव में मनुष्य को मनुष्यत्व ही प्राप्त नहीं होता क्योंकि दया प्रकृति का एक अविभाज्य अंग है । मनुष्य तो मनुष्य पशु-पक्षियों में भी हम प्रेम की एवं दया की भावना पाते हैं। इसीलिये धर्म का मूल दया माना गया है। आदिपुराण में कहा है
दयामले भवेद्धर्मो दया प्राण्यनुकम्पनम् ।
दयायाः परीक्षार्थ गुणा शेषाः प्रकीर्तिता ॥ अर्थात्-धर्म का मूल दया है। प्राणी पर अनुकम्पा करना दया है और दया की रक्षा के लिये ही सत्य, क्षमा आदि शेष गुण बताये गये हैं।
इसीलिये संसार के प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक ने धर्म के विभिन्न सिद्धान्तों का प्ररूपण करने से पहले दया एवं प्राणीमात्र के प्रति प्रेम रखने की प्रेरणा दी है। दया का पैगाम
कहा जाता है कि हजरत मोहम्मद के समय अरब में लोग अनेकानेक देवीदेवताओं को मानते थे और उसके परिणामस्वरूप ही उनमें आपसी मतभेद, अशांति और विग्रह के विषाक्त बीज अंकुरित हो गये थे। इस अशांतिपूर्ण वातावरण की मोहम्मद साहब पर बड़ी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने वहाँ
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